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________________ को भक्त । भक्त भगवान को जीता है, भगवान भक्त में वास करते हैं। तन्मय मन से भजो । भजन यानी जिस कर्म से, चिन्तन से, सेवा से, गुनगुनाने से वृत्ति भगवत्मय बने, भगवद् स्वरूप बने, वही भजन है। जो कुछ करो, उस हर करने को अपना भजन बना दो। तुम हर कार्य में भगवान को, परमात्मा को प्रतिष्ठित कर दो, भगवान तुम में प्रतिष्ठित हो जाएंगे। तुम्हारे हृदय के मन्दिर में उसकी शय्या लग जाएगी। तुम स्वयं वृंदावन के धाम बन उठोगे। तुम्हारी अन्तर की आंखों में उसकी रासलीला होगी। यानी तुम्हारे भीतर एक ऐसा अवतार होगा, जो तुम्हें कृतपुण्य करेगा। तुम्हें अहोभाव और आनन्दभाव से भरेगा। साकी की प्याली पीकर खुद मयखाना हो गया है पीकर शराबे मुर्शिद मैं खद मैखाना हो गया हूँ। पीया तो प्याला ही, मगर हो गये मैखाना । लिया तो चुल्लूभर लेकिन हो गये सागर । थे तो बीज, मगर हो गये बरगद । यानी तब बूंद, बूंद न रही, बूंद सागर हो गयी। __ भगवान को भक्त प्रिय हैं, योगी प्रिय हैं। हर बूंद सागर की ओर चले। बूंद तुम हो, सागर गंतव्य है । बूंद चले सागर की ओर, विराट की ओर । पहले बूंद गिरे सागर में, फिर तो सागर खुद ही उतर आएगा बूंद में । बूंद का सागर में मिलना ही एक प्रेमी भक्त-योगी का धर्म है और सागर का बूंद में समा जाना ही पूर्ण हो जाना है, मोक्ष है। आज का यही संबोधन है। 150 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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