SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का सामर्थ्य किसमें है । वह आंख चाहिये, वह निगाह चाहिये । उसे सब रूपों में देखो, हर रूप में उसकी बैठक है। संत एकनाथ के जीवन की एक प्यारी-सी घटना है। कहते हैं कि संत एकनाथ काशी से कावड़ में गंगाजल लेकर रामेश्वरम् की ओर रवाना हुए। रामेश्वरम् से दस कोस पहले ही उन्होंने देखा कि एक गधा प्यास के मारे तड़फ रहा था, छटपटा रहा था । एकनाथ के साथ वाले सारे कावड़िये उस गधे के पास से गुजर गये, लेकिन किसी ने भी गधे को पानी नहीं पिलाया। गधे की तड़फन और बढ़ती जा रही थी। सभी के मन में यही बात चल रही थी-जल तो है हमारे पास, गंगा का जल, पर यह तो रामेश्वरम् के भगवान के लिए है । यह गंगाजल गधे को कैसे पिला दें । संत एकनाथ गधे के पास पहुंचे, उन्होंने कावड़ को कंधे से उतारा और गधे को गंगाजल पिलाने लगे। लोगों ने उनको डांटा, संतों ने भी डांटा कि एकनाथ तुम यह क्या कर रहे हो? भगवान को अर्पित करने के लिए लाये गये गंगाजल को तम इस गधे को पिला रहे हो। एकनाथ ने कहा-वो विश्वनाथ, वो रामेश्वरम् तो मुझे यहीं मिल गया । मुझे नहीं लगता कि रामेश्वरम् का भगवान इस गधे से भी ज्यादा प्यासा होगा और फिर रामेश्वरम् को चढ़ाने के लिये जल तो तुम्हारे पास है ही। जो व्यक्ति पशु पक्षी, इंसान में अगर रामेश्वरम् को देख रहा है तो वह निश्चित तौर पर महावीर और बुद्ध को देख रहा है, ऋषभ और पार्श्वनाथ को देख रहा है, वह राम-रहीम और कृष्ण-करीम को देख रहा है। भगवान उसके लिए सर्वत्र हैं, सर्वव्याप्त हैं । वह परमात्मा तो हर भूत के साथ, हर भौतिक तत्त्व के साथ, हर आत्मा के साथ मौजूद है; नज़रें अपनी-अपनी हैं। किसी के लिए भगवान न था और न है; और किसी के लिये वह सर्वत्र है। जहाँ आपको दिख जाये भगवान, वहीं बैठ चढ़ा देना एक लोटा पानी। शायद वह सीधा रामेश्वरम् तक पहुँच ही जाये । आप कावड़िये बनो, रास्ते में प्यासा गधा मिल जाये, और आपका गंगाजल उसके होंठों से छू जाये, उसके गले से नीचे उतर जाये, तो रामेश्वरम् का गंगा-स्नान हो जायेगा। ऐसा सौभाग्य आप सब के जीवन में आये । प्राणीमात्र की प्यास बुझाने का आपको सौभाग्य प्राप्त हो । ऐसा करना भगवान के चरणों का अभिषेक करना होगा। भीतर बैठा देवता | 127 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy