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________________ समाविष्ट हो जाता है। ___ वह कंठ ही क्या, जिसने गीता का अपने जीवन में गायन न किया। वे कदम ही क्या, जो गीता के मार्ग पर न चलें । वह वाणी धन्य हो जाती है, जिसको गीता का रसास्वादन हो जाता है । उस व्यक्ति का घर धन्य है जिसको उठते ही सुबह मन्दिर का घटनाद सुनाई देता है और सोने से पहले गीता जैसे धर्मग्रन्थ का श्लोक श्रवण करने को मिलता है, दिव्य ज्ञान के 'दो शब्द' सनने-पढ़ने को मिलते हैं । आम आदमी की रातें असफल होती हैं, लेकिन इन सूत्रों और श्लोकों को दिनभर अपने चिन्तन और मनन में रखने वालों की रातें असफल नहीं हो सकतीं। भगवान करे आपकी रातें भी सफल हों। विकारों में तो हर आदमी की रातें गुजरती हैं, लेकिन जीवन के ऐश्वर्य ईश्वर के रसास्वादन में जिनकी रातें गुजरती हैं, वे रातें भले अमावस्या जैसी क्यों न हों, असल में पूनम जैसी हैं। अगर तुम हिन्दू हो, इसलिए गीता के साथ प्रेम रखते हो, तो गीता के साथ अन्याय कर जाओगे। अगर जैन हो और उस नाते गीता को अस्वीकार करते हो, तो ऐसा करके तुम गीता को नहीं, वरन् अपने जीवन के अन्तर्सत्यों को अस्वीकार कर बैठोगे। इस्लाम के अनुयायी होने के कारण गीता से परहेज़ रखोगे, तो कुरआन के सन्देशों को समझने में तुमने चूक खाई है । जैनत्व, हिन्दुत्व, बौद्धत्व, इस्लाम ये सब छिलके हैं। किसी भी फल का महत्त्व छिलकों में नहीं होता। छिलकों को एक तरफ करो और गूदे को स्वीकार करो । शक्ति गूदे में है । मनुष्य को छिलके इतने लुभाते हैं कि भीतर का पदार्थ गौण हो जाता है। अगर तुम छिलकों को एक तरफ कर गीता को सुनोगे, इसका आचमन करोगे, तो यह एक महान् चमत्कार घटित कर सकती है। यह गीता जीवन में वह अन्तर-रूपान्तरण कर देगी, जिसके अभाव में हम जन्म-जन्मांतरण भटकते रहे हैं। गीता का जन्म निःसन्देह महाभारत के समय हुआ। अगर कृष्ण चाहते, तो गीता का यह सन्देश वे अर्जुन को किसी कक्ष अथवा गुरुकुल के प्रांगण में बैठकर दे सकते थे, लेकिन ऐसा नहीं किया कृष्ण का जन्म तभी होता है, जब किसी के हृदय में अर्जुन का जन्म होता है । जब तक तुम अर्जुन नहीं बनते, संसार में कृष्ण का अवतार नहीं होगा। अगर ऐसा लगता हो कि तुम्हें अपने जीवन में श्रीकृष्ण नहीं मिले, तो मैं कहूँगा कि तुम जीवन में कभी अर्जुन बने ही नहीं । तुम अर्जुन बनो, तो कृष्ण को जन्म लेना ही होगा। कृष्ण-नाम की चदरिया ओढ़ लेने भर से 2 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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