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________________ जागे सो महावीर की सलाह दे रहा है? अंगुलीमाल जब भगवान को इस रहस्य का खुलासा करने के लिए कहता है तो वे कहते हैं, 'वत्स, मैं तो शांति, प्रेम और समता में स्थित हूँ। हो सके तो तू जिस हिंसा, अज्ञान और क्रोध में दौड़ रहा है, स्वयं को रोक ले। मैं तो समता में स्थितप्रज्ञ हूँ, किन्तु तुम जिस चोरी, हिंसा और व्यभिचार के रास्ते में स्वयं को बहाए जा रहे हो, हो सके तो स्वयं को उससे रोक लो।' हजारों साल पहले भगवान के द्वारा सन्त और गृहस्थ का यह स्पष्टीकरण किया गया था कि जो आसक्ति में बँधा है, वह गृहस्थ है और जो संसार में रहते हुए भी अभय, अप्रमत्त और कमल की पाँखुरियों की तरह निर्लिप्त है, वही सन्त है। एक सन्त या श्रमण भी संसार में रहता है, वस्त्र का उपयोग करता है, आहार लेता है और मकान में भी रहता है, लेकिन वह सब का उपयोग करते हुए भी उपयोग नहीं करता। उस व्यक्ति का संसार में रहना, उसका उपभोग करना उसी प्रकार अर्थहीन है, जैसे कि किसी कमल का कीचड़ में पैदा होना। संसार में रहना किसी व्यक्ति के लिए खतरनाक नहीं होता। खतरा तो तब है जब व्यक्ति के हृदय में, चित्त या मन में एक संकीर्ण संसार बस जाए। ऐसा व्यक्ति अपने उस संसार के स्वार्थ के लिए सकल संसार के सुख और शांति को तुच्छ या नगण्य समझता है। संसार में रहते हुए ही महापुरुषों ने तीर्थंकरत्व, सम्बोधि या कैवल्य की सुवास को प्रकट किया है। संसार में रहना या गृहस्थ-जीवन को जीना कोई नाजायज नहीं है, उसी प्रकार जैसे कि किसी कमल का कीचड़ में पैदा होना। लेकिन जब संसार हृदय में बस जाए तो यह व्यक्ति के जीवन को उसी प्रकार गंदा कर देता है जैसे कि कमल की पंखुड़ियाँ जब तक कीचड़ से निर्लिप्त रहती हैं तब तक तो पूजा के योग्य होती हैं, लेकिन जब कीचड़ उनसे लिपट जाता है तो वह फूल अपनी सुवास, सुन्दरता, कोमलता और माधुर्य के महत्त्व और गरिमा को खो बैठता है। ___ संसार के हर प्राणी के लिए भी यही कसौटी है। क्योंकि मुक्ति का मार्ग तो सबके लिए समान होता है। जो उस मार्ग पर चल पड़ता है, वही तो मंजिल पा सकता है और जो रुका या रँधा रहे, उससे मंजिल सदैव दूर ही रहती है। कहते हैं कि एक बार एक युवक ने किसी सन्त को अपने घर पर भोजन के लिए आग्रहपूर्वक आमंत्रित किया। सन्त ने प्रथमतः तो इन्कार किया, किन्तु युवक के अति आग्रह को देखकर अन्त में उन्होंने स्वीकृति दे दी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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