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________________ पूज्य श्री चन्द्रप्रभ अपनी दार्शनिक शैली में योग को सीधे मन और आत्मा से जोड़ना चाहते हैं और इसके लिए स्थूल काया की आवश्यकता भी स्वीकारते हैं। वे चाहते हैं कि तन भी मन जितना ही स्वस्थ बने। उनका मानना है कि व्यक्ति को प्रतिदिन बीस से तीस मिनट योगाभ्यास अवश्य करना चाहिए, तत्पश्चात् प्राणायाम व ध्यान किया जाना चाहिए तभी मन के साथ-साथ तन भी स्वस्थ व क्रियाशील रहेगा। ___ पतंजलि के योग-सूत्र 'रहस्य-का-तर्कशास्त्र' हैं। आप उसकी चाहे जितनी पर्ते खोलें फिर भी कुछ है जो अनकहा रह जाता है। श्री चन्द्रप्रभ ने इन रहस्यों को बड़ी मधुरता से महावीर, बुद्ध, क्राइस्ट, जेन, सूफी आदि परम्पराओं के साथ जोड़कर सहजता से प्रस्तुत किया है। उन्हें आधुनिक विचारकों में ओशो का नाम लेने से भी परहेज़ नहीं है। वे कृष्णमूर्ति और अरविंद जैसे दार्शनिकों का भी सम्मान करते हैं। सच पूछा जाए तो पूज्यश्री सभी स्वस्थ परम्पराओं के समन्वयाचार्य के रूप में उभरकर हमारे सामने आते हैं जहाँ कहीं कोई विरोध दिखाई नहीं पड़ता। अगर वे रहस्यदर्शी दार्शनिक हैं तो प्रेमपूर्ण हृदय के देवता भी हैं। उन्हें सूर, मीरा, चैतन्य महाप्रभु से भी उतना ही लगाव है। उनके कथन में तर्क के साथ भावों की भी सघन गहराई है। आज विश्व में जहाँ वैज्ञानिक अनुसंधान और आविष्कार सूक्ष्म से सूक्ष्मतर की ओर बढ़ रहे हैं वहीं आध्यात्मिक विश्लेषक उच्च आयामों की खोज कर सृष्टि और प्रकृति के शाश्वत सत्यों को उपलब्ध कराने को कटिबद्ध हो रहे हैं। श्री चन्द्रप्रभ भारतीय एवं मानवीय जीवन-दृष्टि के संवाहक हैं। वे जीवन के शाश्वत सत्यों से स्वयं रूबरू होकर हमें भी रूबरू करवा रहे हैं। वे सूरज की किरण बनकर हमारे भीतर आशा और विश्वास का सवेरा जगाते हैं, तो चंदा की चाँदनी बनकर हमारे अज्ञान के अंधकार को दूर करते हैं। वे अपनी आत्मीयता में डुबोते हैं और बहुत सरलता से पार उतरने के लिए पतवार थमा देते हैं। वे हमें सच्चाई का सामना करने का पथ और साहस प्रदान करते हैं। योग का प्रवेश-द्वार विकट है। यहाँ कठोर अनुशासन है, जिसमें योग नौका है और उतारने वाला गुरु है। यह गुरु कबीर की भाषा में कहता है – 'सीस उतारे मुंई धरै तब पैठे घर मांहि।' परम पूज्य निमंत्रण दे रहे हैं कि आओ और वह बीज ग्न जाओ जिससे सुगंधित पुष्पों से भरे, फलों से लदे वृक्ष का उदय हो सके। इस सुन्दर पुस्तक में अवगाहन कर आप उस उज्ज्वल, चैतन्य, ध्यान और समाधि के पथ का अनुसरण कर अ-मन और मुक्त दशा को प्राप्त हो सकें यही शुभ-मंगल भावना है। प्रभुश्री के चरणों में अहोभाव-पूर्ण नमन। - मीरा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003887
Book TitleYoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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