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करने के लिए ध्यान करना है ।आत्मा कहीं खोई नहीं है कि ध्यान द्वारा खोजी जाए।
मैं जब ध्यान करता हूँ तो पलकें झुकाता हूँ - प्राणायाम करता हूँ, शांति में प्रवेश करता जाता हूँ, चित्त शांत हो जाता है, स्थिर हो जाता है और तब अपने हृदय प्रदेश में उस परमात्मा का सान्निध्य, उसका सम्पर्क लेता हूँ। इस काया के बाहर जो कायनात है, उसका भी आनन्द लेता हूँ।
देखो, देख पाओ तो वह सर्वत्र है, जानो तो वह है, अहसास करो तो वह है अगर नहीं है तो फिर मंदिर में भी नहीं है, तीर्थ में या मस्जिद, गुरुद्वारे में भी नहीं है वह कहीं भी नहीं है। वह तो सब जगह है केवल उसका आनन्द लेना आना चाहिए। समाधि तो चौबीसों घंटे नहीं लग सकती, पर प्रभु का आनन्द चौबीसों घंटे लिया जा सकता है,प्रकृति का आनन्द भी हर समय लिया जा सकता है। माना कि भगवान प्रकट हो जाएँ तो भी हर वक़्त वे हमारे साथ नहीं रह सकते। अरे, भगवान तो सबके सामने हैं ही। दुनिया में अरबों लोग हैं। सबके सामने तो वह प्रकट होने से रहे, हमने समझा ही गलत है। वह तो प्रत्येक के साथ अदृश्य रूप से है। वह तो सभी में निवास करता है, केवल दृष्टि रखो। तब धारणा भी होगी और ध्यान भी सधेगा। तब ध्यान के लिए मन लगाना नहीं पड़ेगा, तब मन लगा हुआ ही होगा। पत्नी, परिवार, व्यापार में जैसे मन नहीं लगाना पड़ता खुद-ब-खुद लग जाता है। वैसे ही ध्यान में मन लग जाएगा। जो लगाई जाए वह खंडित हो जाती है और जो लग जाती है वह छूट नहीं पाती। जिसका मन प्रेम में लग गया उस लगे हुए मन को हटाया नहीं जा सकता।
ध्यान का अर्थ ही लगन लगना है। ध्यान के बिना तो जिया ही नहीं जा सकता। काम करना है तो ध्यान से करो, चलना है तो ध्यानपूर्वक, बोलना भी ध्यानपूर्वक, खाना-पीना, उठना-बैठना, रहना, सोना सबके साथ ध्यान की आभा जुड़ जानी चाहिए। जिसके साथ ध्यान की स्थिति जुड़ जाती है, समाधि, प्रभु का अनुग्रह, प्रभु की प्रसादी उसके आसपास ही रहती है।
जीवन प्रभु का वरदान है। इसे उत्सव समझें, तब ध्यान अनायास ही हमारे साथ रहेगा। माना कि इन्द्रियों की स्थिति बहिर्मखी है, चित्त की गति बहिर्गामी है लेकिन बाहर भी तो वही जाता होगा जहाँ उसे सरसता व प्रेम मिलता होगा। अगर प्रभु से लौ लग जाए, उससे प्रीत पाल लें, उसे आँखों में बसा लें तो ध्यान सहज है। अरे, दान देना हो तो कठिन है क्योंकि कुछ देना पड़ता है, तपस्या में भूखे रहना पड़ता है, लेकिन ध्यान करना हो तो! इससे अधिक सरल काम कोई है ही नहीं। न कही जाना, न कुछ देना, न भूखे रहना केवल प्रभु को दिल में बसाना है, केवल चित्त को
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