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________________ व्यक्ति अपने भीतर वही गंदगी, वही कचरा, वही मटमैलापन, वही तमस, वही दुर्गंध लेकर चल रहा है तो उसका मुनिपन निरर्थक है। बाहर से उज्ज्वल दिखाई देने वाला मुनित्व अंदर से कलुष भरा हो सकता है। वह मुनि-जीवन की दैनिक मर्यादाओं का पालन कर सकता है, बाह्य रूप से उसके हर काम में तीव्र सजगता हो सकती है, वह समस्त धार्मिक क्रियाएँ भी सम्पन्न करा सकता है, लेकिन आंतरिक पक्ष उज्ज्वल न हो पाये तो उसका मुनि-जीवन शर्मनाक है। वेदों की चार आश्रम की व्यवस्था बहुत सार्थक है। वेद कहते हैं कि मनुष्य अपने जीवन का प्रथम भाग ब्रह्मचर्य में, द्वितीय भाग गृहस्थ में, तृतीय भाग वानप्रस्थ में और चतुर्थ भाग संन्यास में बिताये। जब तक व्यक्ति पहली कक्षा न पढ़े यह बहुत मुश्किल है कि वह आठवीं कक्षा उत्तीर्ण कर सके। इसी तरह ध्यान-साधना भी क्रमिक अभ्यास है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है अत्यंत पवित्रता के साथ जीवन जीना। इसका अर्थ यह नहीं कि गृहस्थाश्रम में कुछ कलुषता हो, इसका मतलब है बालपन में व्यक्ति अधिक निर्मल, अधिक कोमल और अधिक शुचिता लिए हुए होता है। यूँ तो अपवाद भी मिल जाएँगे फिर भी कलुषता कम ही होती है। वैसे भी चारित्रिक रूप में शरीर से गिरना कम संभव हो पाता है, लेकिन मन तो जब-तब, यदा-कदा गिरता ही रहता है। मन में उठने वाले विचार उसे उठाते-गिराते रहते हैं। इसलिए जीवन की प्रथम अवस्था ब्रह्मचर्य कही गई, जहाँ संस्कार, शिक्षा, आचार-व्यवहार सम्पन्न होते हैं। दूसरी, गृहस्थ-अवस्था में व्यक्ति की दृष्टि तो घर में स्थित है, लेकिन अन्तर्दृष्टि में आगे वाली अवस्था स्पष्ट दिखाई देती रहती है। हमारी आदत है अतीत में देखने की। हम उसे ही मधुर और सुखी समझते हैं, लेकिन ज्ञानी वही है जो आज में रहकर भविष्य का दर्शन कर पाता है। जो जानता है कि गृहस्थ-धर्म के बाद मुझे वानप्रस्थ में प्रवेश करना है, वह संसार के मायाजाल से धीरे-धीरे ऊपर उठ जाता है और वानप्रस्थ धर्म में सांसारिक बंधनों से स्वयं को निर्लिप्त कर लेता है। ____ आज हम गृहस्थ के दायित्वों की चर्चा करेंगे कि व्यक्ति घर में रहते हुए, संसार में रहते हुए कैसे सिद्धत्व को प्राप्त कर सकता है। आपने श्रीमद् राजचन्द्र का नाम सुना है न ? वे गृहस्थ थे। संसार का त्याग भी न किया था, लेकिन मात्र बयालीस वर्ष की उम्र में उन्होंने जिस परम सत्य को पाया, समझें, गृहस्थ के दायित्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003886
Book TitleDharm Aakhir Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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