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यही होना चाहिए कि न तो ज्यादा भूखे रहें और न अधिक खाएँ। शरीर को उतना ही तपाएँ, जितना आवश्यक हो। और उतना ही पोषण दें, जितना आवश्यक हो।
भगवान बुद्ध के जीवन की बहुत ही महत्त्वपूर्ण कथा है। बुद्ध ने ज्ञानप्राप्ति के लिए खूब तपस्या की। अपने शरीर को सुखा लिया मगर उन्हें ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ। एक बार वे एक वृक्ष के नीचे आँखे बन्द किये बैठे थे। वहाँ से कुछ पनिहारिनें एक गीत गुनगुनाती गुजरी। उसका भाव था।
इतने अधिक कसो मत निर्मम, वीणा के हैं कोमल तार। टूट पड़ेंगे सब के सब ही, कभी न निकलेगी झंकार।। इतने अधिक करो मत ढीले, वीणा के रसवंती तार।
कोई राग नहीं बन पाये, निष्फल हो स्वर का संसार। वीणा के तार न तो इतने अधिक कसो और न ही उन्हें ढीला छोड़ो। तारों को ज्यादा कसा तो वे टूट जाएँगे और ढीला रखा तो संगीत की स्वरलहरियाँ नहीं निकलेंगी। बुद्ध को जैसे बोध हो गया। उसी दौरान सुजाता नामक एक महिला ने उनके आगे लाकर खीर से भरा प्याला रखा। बुद्ध ने समझ लिया कि शरीर रहेगा तो तपस्या अपने आप हो जाएगी और उन्होंने वह खीर ग्रहण कर ली। कहते हैं बुद्ध को उस दिन ज्ञान हो गया और जिस वृक्ष के नीचे वे बैठे थे उसका नाम बोधि-वृक्ष पड़ गया। वीणा को वहीं साधो, जहाँ उसमें से झंकार निकल सके। तपस्या को आत्मा से जोड़ो, शरीर से नहीं। जहाँ आत्मा में वास हुआ वहीं उपवास हुआ और वहीं तपस्या हुई।
तपस्या में आदमी अन्तर-शुद्धि तो नहीं कर पाता, वरघोड़ा जरूर निकालना चाहता है। होगा यह कि वह पूरा शरीर सोने से सजा लेगा मगर भीतर की गन्दगी को साफ करने की तरफ उसका ध्यान नहीं जाएगा। सबसे पहले भीतर को सजाने का प्रयास करें। उपवास भीतर के कषायों को समाप्त करने में सक्षम है। आप उपवास नहीं कर सकते तो इतना तो जरूर करें कि आज मैं लोभ नहीं करूँगा, डाँट-डपट नहीं करूँगा। अहंकार और क्रोध में नहीं जीऊँगा। इतना ही कर लिया तो काफी है।
आप अपनी तपस्या को नया मोड़ दें। आप तय करें कि आज मैं ऊनोदरी-तप करूँगा यानी भूख से दो ग्रास कम खाऊँगा या थाली में जैसा
धर्म, आखिर क्या है?
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