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________________ हमारे फासले और फर्क ऊपरी हैं, भीतर कहीं गहराई से हम जुड़े हैं। हमें कोई जोड़ने वाला तत्त्व न होता तो, दुःख कैसे लौटता ? तरंगें जाती हैं, लौट आती हैं। हम एक ही सागर के हिस्से हैं और उस सागर का नाम परमात्मा है। मिट्टी के कितने ही दीये हों, उनकी ज्योति एक है। ज्योति का स्वभाव एक है। दीयों के आकार में, रंग-रूप में फर्क हो सकता है, लेकिन सबके भीतर जो ज्योति जलती है, वह एक है। जो मेरे भीतर है वही तम्हारे भीतर है। मुझमें और तुममें जो फर्क और फासले हैं, वे मिट्टी के दीयों के हैं। सब ऊपर की बात है, जैसे-जैसे भीतर उतरोगे, वैसे-वैसे भेद समाप्त हो जाएँगे। जब ठीक अंतर्जगत में पहुँच जाओगे तो पाओगे जो दीया यहाँ जल रहा है, जो ज्योति यहाँ है, वही वहाँ भी है। ___ हम सभी सद्धर्म जानते हैं, पर मुश्किल यह है कि हम उसे जीना नहीं चाहते। यह जानते हुए भी कि हिंसा करना पाप है, लोग हिंसा में लिप्त हैं। इसलिए भगवान कहते हैं कि ज्ञानी होने का सार यही है कि व्यक्ति अपने जीवन में हिंसा न करे। दूसरी बात भगवान कहते हैं-'जो समत्वभाव में जीता है वह हिंसा से मुक्त रहता है।' यह जगत अन्तर्संबंधों का जाल है। जैसा करोगे वैसा ही पाओगे। अगर तुमने अपने माता-पिता की सेवा की है, तो संभव है तुम्हारे बेटों से सेवा की अपेक्षा की जा सके। ____एक बालक टूटी-फूटी प्लेटों को सँभालकर तिजोरी में रख रहा था। माँ ने पूछा, 'बेटा यह क्या कर रहा है? पत्र ने कहा, 'माँ, तम भी तो एक दिन बूढ़ी होओगी और तुम्हें खाना खिलाने को बर्तन चाहिए तो यही काम आ जाएँगे। बेटे की माँ ने बूढ़ी दादी के साथ जो किया है वह बेटा कैसे भूल जाए! भगवान कहते हैं, अगर तुम ज्ञानी हो तो स्वयं को हिंसा से पूर्णतया मुक्त करने की कोशिश करो। अगर तुमने बोधपूर्वक हिंसा का त्याग नहीं किया तो हिंसा जारी रहेगी। हिंसा करने के लिए भले ही मत सोचो, लेकिन हिंसा हो जाएगी। किसी ने गाली दी, तुम्हें नियम-संकल्प की याद भी न रहेगी और चेहरा तमतमा जाएगा। जब तमतमाहट आएगी तो पता चलेगा, अरे फिर से मैं बह गया। यह एक क्षण में हो जाता है। खाली बैठे थे, बगीचे में पेड़-पौधे हरियाली का आनन्द ले रहे थे कि एक गेंद आकर लग गई कि भीतर कुछ हिल गया। तुम्हें कुछ भी पता न था लेकिन परिणाम भीतर था, पुरानी आदत ज्ञानी होने की सार्थकता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003886
Book TitleDharm Aakhir Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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