SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वहाँ मीरा के लिए विष का प्याला भी अमृत बन जाता है। सड़क पर चलने वाले लोग उसकी चाहे जितनी बदनामी करें, उसकी श्रद्धा खंडित होने वाली नहीं। परिवार के लोग भले निंदा करें, पर मीरां अपने पथ से डिगने वाली नहीं। उसकी श्रद्धा अटूट है। रामकृष्ण को चाहे कैंसर हो गया, पर देवी माँ के प्रति उनकी श्रद्धा वैसी-की-वैसी बनी रही। . भगवान कहते हैं समर्पण वह, जहाँ 'मैं' न रहा, 'वह' ही 'वह' रह गया। 'नर' मिट गया 'नारायण' प्रगट हो गया, चेतना की वट अवस्था ही समर्पण कहलाती है। जहाँ भक्त का अस्तित्व भगवान में विलीन हो जाता है वहाँ समर्पण होता है। समर्पण वह जहाँ 'अहं' का अस्तित्व समाप्त हो गया और 'अहम्' जाग्रत हो गया। समर्पण में खोने और पाने को कुछ नहीं होता। जिस मीरां ने राजमहलों में सारी भौतिक सुख-सुविधाएँ पाई थीं, लेकिन जब गली-गली में गाने लगीं तो भी कोई शिकायत न की। सास ने 'कुलनासी' कहा, राणा ने विष का प्याला भेजा, लोगों ने पत्थर मारे और 'बावरी' कहा, लेकिन मीरां में जरा भी अंतर न आया, उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। जहाँ व्यक्ति ने अपने अस्तित्व को परमात्मा में विलीन कर दिया, वह उन बातों को ग्रहण नहीं करता जो उसके नाम को सम्बोधित करके दी जाती हैं, क्योंकि नाम भी तो उन्हीं लोगों ने दिया है। वह तो सबकुछ परमात्मा को सौंप देता है, गाली भी, गीत भी। गंगा तो गंगासागर में मिल गई है। अब अगर पानी खारा हो जाए तो उसका क्या दोष ! उसने तो अपना अस्तित्व विराट में लीन कर दिया! मीरां तो जहर पीकर भी नाच रही थी। राणा ने भेजा विष और वह चरणामृत समझकर पी गई। राणा को पता चला तो उसने सैनिक को बुलाया और पूछा कि तुमने उसमें क्या मिला दिया था कि मीरां अभी भी जीवित है। सैनिक ने कहा, 'मैंने तो कुछ भी नहीं मिलाया, बस ले जाकर कहा कि राणा जी ने आपके लिए चरणामृत भेजा है। श्रद्धा हो, समर्पण हो तो विष भी चरणामृत ही बन जाता है और मीरां-'राणाजी भेज्या विष का प्याला, पीवत मीरां हांसी रे। मीरां तो मोहन हो गई। इतना गहरा समर्पण कि परमात्मा जहाँ बहा दे, बहे जाओ। ___ दूसरा मार्ग है संकल्प का, महावीर और बुद्ध का मार्ग। जहाँ व्यक्ति अपने अस्तित्व को परमात्मा में विलीन नहीं करता, अपितु अपने अंदर धार्मिक जगे, अधार्मिक सोए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003886
Book TitleDharm Aakhir Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy