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आत्मबोध को पहचानता है, जड़-चैतन्य की भेद - रेखा को स्पष्टतः देख लेता है, तब उसकी जीवन-यात्रा जिस ओर जाती है, वह ईश्वरत्व की प्राप्ति है । अध्यात्म-जगत में ब्राह्मण और श्रमण - संस्कृति भारत की देन है । इन दो संस्कृतियों में क्या भिन्नता है ? यही कि एक संस्कृति मानती है कि कभी किसी ईश्वर के अंतर्मन में यह भाव आता है कि 'एकोऽहं बहुस्यामः' — और वह ईश्वर मनुष्य का रूप धारण कर पृथ्वी - ग्रह पर आता है और अपनी ईश्वरीय लीलाएँ दिखाकर अपने स्वरूप में लौट जाता है । वहीं दूसरी ओर श्रमण-संस्कृति का रहस्य यही है कि व्यक्ति यहाँ पर मनुष्य-रूप में अपनी यात्रा प्रारंभ करता है और जब जीवन में विवेक, ध्यान, जागरूकता और आत्मबोध की प्राप्ति होती है, तब वह ईश्वरत्व की ओर प्रयाण करता है । जिसे आत्म-बोध, जीवन की दृष्टि, जीवन की शैली और जीवन का आयाम मिल जाता है, वह अपनी यात्रा इन्सान से भगवान की ओर करने लगता है । हमारा भी यही उद्देश्य है कि व्यक्ति उत्तरोत्तर जीवन का विकास करते हुए ईश्वरत्व के चरम शिखर पर पहुँच सके । इन्सान तलहटी है और शिखर ईश्वर है।
हमारे सूत्र किसी तंत्र का हिस्सा नहीं हैं, न ही कोई उपदेश हैं। ये वे वचन हैं, वे ऐसे जीवन-संवाद कि तुम्हारे भीतर सोया हुआ शौर्य जाग जाए, तुम्हारा सिंहत्व गरज उठे, तुम्हारे भीतर छिपी हुई परम आभा, परम दिव्यत्व की परख हो सके और अपनी यात्रा शिखर की ओर प्रारंभ करे । अभी तक तलहटी में ही जन्म लिया और वहीं अंत भी हो गया, शिखर नहीं छू पाए । केवल शिखरों को देख लेने भर से शिखरों की यात्रा का आनंद नहीं लिया जा सकता। पुस्तकों में हिमालय के चित्र देख लेने भर से हिमालय की यात्रा का आनन्द नहीं मिल सकता, उसी तरह शास्त्रीय वचनों को सुन लेने से या मोक्ष, मुक्ति और निर्वाण की चर्चाएँ कर लेने से मुक्ति का परम आनन्द उपलब्ध नहीं होता। उसके लिए तो ध्यान-साधना के मार्ग से गुजरना होता है । तब अनेक भवों से निकलने के बाद मानव - चेतना अन्तर्पीड़ा को देख पाती है और उसकी यात्रा पीड़ा-मुक्ति की ओर आरंभ होकर परम सुख को प्राप्त करती है।
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हा ! जह मोहिय-मइणा, सुग्गइमग्गं अजाणमाणेणं। भीमे भवकंतारे, सुचिरं भमियं भयकरम्मि ॥
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धर्म, आखिर क्या है ?
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