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________________ मनुष्य के अन्तर्विचारों की क्षुद्र वृत्ति ही जीवन में वैर की गाँठों का निर्माण करती है । यह गाँठ जन्म-जन्म तक चलती रहती है। आपको पता हैन कमठ और पार्श्वनाथ की वह गाथा ! वैर की गाँठ बँधी, तो बँधती ही चली गई। वैर की गाँठ का अंत भला कहाँ होता है ? मनुष्य सौ उपकार भूल जाता है, लेकिन एक अपमान याद रखता है । देखना, कहीं ऐसा तो नहीं हो रहा, भीतर उठने वाले कषाय और क्रोध से वैर की गाँठ बँध रही है ? स्वयं को क्रोध और कषाय से मुक्त करने की कोशिश करें । अहंकार के कारण वैर की गाँठ बँधती है, अहंकार ही कृष्ण लेश्या का आधार है । किसी की दी गई गाली तुम्हें चुभती है क्योंकि तुम अहंकार से घिरे हो। तुम तो मित्र भी उन्हीं को समझते हो जो तुम्हारे अहंकार को तृप्त करते हैं। जितना अहंकार होगा, उतनी ही वैर की गाँठें मजबूत होंगी। जैसे-जैसे क्रोध और कषाय से स्वयं को मुक्त करोगे, वैसे-वैसे स्वभाव में शीतलता आती जाएगी। कहते हैं, बोकोजू बहुत छोटे थे, तभी फकीर बन गए थे । बोकोजू के गुरु ने उन्हें अपनी कुटिया में झाडू लगाने का काम सौंपा। वह छोटा-सा बालक बड़ी तल्लीनता से सफाई करता । एक दिन झाडू लगाते समय बुद्ध की प्रतिमा गिर पड़ी और टूटकर चूर-चूर हो गई। बालक बोकोजू घबराया, क्योंकि वह जानता था, गुरु जी थोड़े उग्र स्वभाव के हैं। बहुत कम गुरु विनम्र और शांत होते हैं। ज्यादातर को यही दंभ होता है कि मैं गुरु, तू शिष्य । बोकोजू ने गुरु को कुटिया की ओर आते देखा तो मूर्ति के टुकड़े समेटे और कपड़े में बाँधकर बैठ गया । जैसे ही वे अंदर प्रविष्ट हुए बोकोजू ने पूछा, 'गुरुजी, किसी का जन्म हुआ और वह जवानी में ही मर जाए तो हम क्या कहेंगे ?' गुरु बोले, 'समय का प्रभाव कहेंगे और क्या । समय बड़ा बलवान है।' तब बोकोजू ने कहा, 'कल्पना करें, अगर कोई मूर्ति टूट जाए तो ?' 'तब भी समय का प्रभाव ही कहेंगे, बेटा', गुरु कहा। ‘लीजिये समय के प्रभाव से यह मूर्ति टूट गई है, मेरा कोई दोष नहीं है।' बोकोजू कहता है। तब गुरु उसे जीवन का सूत्र देते हैं कि जीवन में जो भी घटे उसे समय का प्रभाव समझना। अनुकूल और प्रतिकूल सभी स्थितियों को समय का प्रभाव मानना। गुरु के द्वारा दिया गया यह अद्भुत सूत्र बोकोजू का जीवन बदल देता है । कृष्ण लेश्या का तिलिस्म Jain Education International For Personal & Private Use Only 121 www.jainelibrary.org
SR No.003886
Book TitleDharm Aakhir Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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