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________________ पापा ने आपको अंगुली दी और खड़ा होना तथा चलना सिखाया। आज तुम्हारी माँ पिचयासी साल की हो गई है, वह खड़ी नहीं हो पा रही, चल नहीं पा रही है। तब तुम्हारी अंगुली कहाँ चली गई है? बचपन में तुम बिस्तर गीला कर देते थे, गंदा कर देते थे। सोचो कभी ऐसा भी हुआ होगा कि तुम छोटे रहे होगे तब तुम्हारी माँ खाना खा रही थी कि तुमने शौच कर दी थी। तुम्हारी माँ ने खाना बीच में ही छोड़कर तुम्हारे शरीर की शुद्धि की, हाथ धोए और पुनः खाना खाने बैठ गई। यही उदारता क्या तुम अपनी माँ के बुढ़ापे में एक बार भी दिखा पाओगे? बचपन में तुम अपने हाथ से खाना नहीं खा पाते थे, बुढ़ापे में उन्हें भी बहुत दिक्कत होती है। बचपन में तुम्हें अकेले रहना अच्छा नहीं लगता था, बूढ़ों की मजबूरी है कि वे अकेले रहने को विवश हो जाते हैं। फ़र्क केवल इतना है कि जब तुम बच्चे थे तो माँ-बाप ने तुम्हे बड़े प्रेम से पाला था और आज जब वे बूढ़े हो गए हैं तो तुम्हारे भीतर उन्हें पालने के लिए उतना प्रेम नहीं है। जब तुम बच्चे थे तो उन्होंने खुशियों से पाला था लेकिन उनके बुढ़ापे को सुखमय, आनंदमय करने के लिए तुम्हारे अन्तर्मन में कोई खुशियाँ नहीं कि तुम अपने माँ-बाप या दादा-दादी की सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त करो। मैंने देखा है जो अपना बुढ़ापा नहीं साध पाते उनका बुढ़ापा कितना त्रासदी से भरा होता है। भगवान, जितना रोग से बचाए उतना उस बुढ़ापे से भी बचाए जिसमें व्यक्ति मोहासक्त तो रहता है पर जीवन का ज्ञान नहीं हो पाता। आचार्य शंकर काशी में थे, वे भगवान विश्वनाथ के दर्शन कर गंगा के तट पर आए। वहाँ उन्होंने दो बूढ़े व्यक्तियों को देखा। उनमें से एक व्याकरण के सूत्रों को याद कर रहा था और दूसरा बूढ़ा अपने पोते-पोतियों के मायाजाल में उलझा हुआ था। तब आचार्य शंकर ने कहा - अरे, तेरे अंग गल गए हैं, दाँत टूट गए हैं, चेहरा झुक गया है, चेहरे पर झुर्रियाँ छा गई हैं, कमर झुक गई है। आँख से देख नहीं सकते, कान से सुन नहीं पाते, लेकिन इसके बाद भी संसार की मोह-माया और जिजीविषा तुम्हारे भीतर अभी भी जवान है। अब तो आत्म-चिंतन, ईश्वर का चिंतन करना शुरू कर दो। अब तो कम से कम अपने जीवन के लिए कोई बोध, कोई होश, कोई जागरूकता की बात उठानी शुरू कर दो। अपने हाथ से तुमने स्वर्गीय दादा-दादी को जलाया था, पर होश नहीं आया। और तो और बीस साल के बेटे का भी अपने हाथों से दाह 60 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003885
Book TitleJivan ki Khushhali ka Raj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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