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कोई आर्कीटेक्ट व्यक्ति है । उसकी यह ऊँची सोच ही उसे ऊँचे शिखरों तक ले जाएगी।
अपनी सोच को विशाल रखो और अपना नजरिये को बेहतर बनाओ । अपना आदर्श किसी अच्छे व्यक्ति को बनाओ । व्यक्ति की एक सहज प्रवृत्ति होती है ईर्ष्या की । वह और किसी से नहीं तो अपने पड़ौसी से ही ईर्ष्या करेगा कि मेरा मकान एक मंजिल का है जबकि पड़ौसी का मकान तिमंज़िला है । पर सोचो कि इस ईर्ष्या से तुम्हें क्या हासिल होगा? ज्यादा से ज्यादा यह कि तुम अपने घर को उसके घर जैसा बना लोगे । यदि ईर्ष्या करनी ही है तो किसी टाटा, बिरला से करो ताकि तुम ऊँचे उठो तो दुनिया को पता तो लगे । ईर्ष्या करनी है तो मुझसे नहीं, किसी महावीर, राम या कृष्ण से करो ताकि यदि राम न बन पाए तो कम कम तुलसी तो बन ही जाएँगे, कृष्ण तक न पहुँच पाए तो क्या, कबीर तक तो पहुँच ही जाएँगे।
आदर्श ऊँचे रखें। सफलताएँ, असफलताओं से ही जन्म लेती हैं। गुलाब उगने से पहले दस-दस कांटे उग आते हैं। याद रखिए, बिना चट्टानों को पार किए झरनों तक नहीं पहुँचा जा सकता । बिना बाधाओं के सफलता नहीं मिलती। लोग आलोचना करेंगे, टिप्पणी करेंगे, चुनौती देंगे और चलते हुए को लंगड़ी देकर भी गिराएँगे । तुम सोच लो कि तुम्हें क्या करना है ? सुननी सबकी है पर करनी अपने मन की है । अपना खुद का फैसला आप खुद करें।
एक बार एक व्यक्ति मरणासन्न था । उसके निकट खड़े, पुत्र ने पूछा- 'पिताजी, आप यह तो बताते जाइए कि अपनी इस बिटिया का विवाह कहाँ किससे करना है?' पिता ने कहा- 'बेटा । अभी तो यह बहुत छोटी है। मैं इसके लिए जो वर बताऊँ, वह तब तक तुम्हारा हमदर्द रहे या न रहे। तुम ऐसा करना कि विवाह का समय आए तब हरिजन काका से सलाह कर लेना ।'
पिता मर गया, समय आने पर लड़की बड़ी हुई। बेटे को पिता की बात याद थी। उसने हरिजन काका को, जो कि सफाईकर्मी था, बुलाकर
आपकी सफलता आपके हाथ
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