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________________ आखिर धन कमाना है तो उम्र भी नहीं देखते। अस्सी-नब्बे साल के हो गए, मगर दुकान से मोह नहीं छूटा। कब तक यही करते चले जाओगे? कहीं तो विराम दो वत्स! तीस वर्षीय एक युवक आजीविका कमाने के लिए मेहनत करता है, ठीक बात है। मगर अस्सी साल का वृद्ध भी जुटा हुआ है। सुबह आठ बजे से रात के आठ बजे तक जुए के बैल की तरह लगा है। ऐसे आदमी से पूछो कि आखिर तुम्हारे जीवन का विराम कहाँ है? जितना कमाना था, कमा लिया, ऐश करना था, कर लिया, अब तो यह दुकान समेटो। शरीर को ही कब तक मलते रहोगे। शरीर के पार जो पारदर्शी तत्त्व है, उस तक तुम्हारी नज़र नहीं जाती। हम केवल बाहर-बाहर ही जीते हैं, ऊपर-ऊपर की लीपापोती करते रहते हैं। मैं आपको कैसा दिखाई देता हूँ, इस बात पर गौर मत करिए, आप अपने आपको कैसे दिखाई दे रहे हैं, इस पर गौर फरमाइएगा क्योंकि उसी से आपका कल्याण होगा, आपके जीवन का मार्ग प्रशस्त होगा। जीव के परिभ्रमण के मुख्य कारण क्या हैं? और ये कारण कैसे दूर हो सकते हैं? व्यक्ति स्वयं कारण बनता है और कोई दूसरा इसे दूर कर भी नहीं सकता।व्यक्ति को स्वयं ही मुक्त होना होता है। हमें कोई बाँध नहीं सकता। दुनिया में किसी की ताक़त नहीं है कि कोई आपको बाँध जाए। व्यक्ति खुद ही बँधता है। अगर कोई दरवाजे को पकड़ कर बैठ जाए और चिल्लाने लगे कि बचाओ बचाओ। यह दरवाजा मुझे नहीं छोड़ रहा है, तो इसमें किसकी गलती है । दरवाजे को तो तुमने ही पकड़ रखा है। दरवाजे की क्या मज़ाल कि वह तुम्हें पकड़ सके। यह मत सोचो कि आप मर गए तो पीछे आपकी पत्नी भी मर जाएगी, आपके माँ-बाप मर जाएँगे। कोई नहीं मरने वाला। विवाह किया है, कर्तव्य जरूर निभाओ, माँ-बाप भले कंजूस हैं, चिडचिडे हैं, फिर भी निभाओ। कर्तव्य तो यही कहता है। मगर हमने हमारा मूल्य, माँ-बाप से ज्यादा मान लिया है। हमारा मूल्य, अपनी पत्नी से अधिक मान लिया है। माता-पिता तो हमारे लिए जन्म देने का एक मार्ग भर रहे हैं। जन्म हमें लेना था। पिता के अणु व माँ का गर्भ मिला। हमारा जन्म हो गया।शरीर का पिता होता है और शरीर की ही माँ होती है। पर हमारा न कोई पिता होता है, न माँ होती है, न पत्नी होती है। जब तक हम देह-भाव में जीते हैं, जब तक देहभाव हम पर आरूढ़ होता है, तब तक पत्नी का भाव भी रहता है और जब देह का भाव शांत हो जाता है तो वह पत्नी नहीं रहती, वह एक महिला हो जाती है। तब माँ भी एक महिला है, पत्नी, बहन भी एक महिला। पिता एक पुरुष है तो बेटा भी। तुम स्वयं एक पुरुष हो। सारे पुरुष और महिलाएँ एक जैसे हैं। जब तक देह का भाव रहता है तब तक स्त्री-पुरुष के भेद रहते हैं। जब हम देह से देहातीत हो जाते हैं, विदेह की स्थिति में |113 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003882
Book TitleBanna Hai to Bano Arihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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