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अपना विभ्रम अपना प्रमाद, बँध गया एक दिन बंधन में।
वे दिन भी काट लिये मेंने, छल को पहचाना जीवन में। 'अपना विभ्रम अपना प्रमाद'- यह जीवन का सत्य है। एक मुक्त आत्मा आखिर संसार में उलझ कैसे गई !
अब तोड़ चुका हूँ मैं बंधन, कैसे विश्वास करूँ तुम पर।
तुम मुझे बुलाते हो भीतर, मैं तुम्हें बुलाता हूँ बाहर! - और आज जब मैं अपने बंधनों को काट ही चुका हूँ तब न जाने कितने लोग आते हैं, मोहित करते हैं, आमंत्रण देते हैं चले आओ। तुम प्रव्रजित होने को तैयार हो जाओ तो पता नहीं कहाँ-कहाँ से लोग तुम्हारे पास इकट्ठे हो जाएंगे और तुम्हें तरहतरह के प्रलोभन देंगे। बड़ी-बड़ी समझाइश देंगे।क्यों दीक्षा लेते हो, घर में रहो भाई, क्या कमी है। कमाकर खा नहीं सकते क्या! हजार तरह की सलाहें। और अपने यहाँ तो बिना माँगे सलाह देने वाले लोग मिल जाते हैं । सलाह माँगने जाओ तो बोलें भी न, और बिना माँगे....। जब भी कभी अच्छा कार्य करने जाओगे तो सलाहें देंगे सगे भाई की तरह, फिर चाहे पूछे भी न। कहेंगे क्या करते हो, अरे रुक जाओ। दान करने पर कहेंगे क्यों देते हो ये ट्रस्टी लोग (या अन्य कोई भी दूसरे लोग) खा जाएँगे, क्यों दे रहे हो। ___ तपस्या करोगे तो कहेंगे - दिमाग खराब हुआ है भूखे मरते हो। दुनिया ऐसे कार्यों के लिए टोकती है जिनसे आत्ममुक्ति होती है। क्योंकि बँधा हुआ जीवन बंधन की ही प्रेरणा देगा। महावीर और बुद्ध भी संसार की प्रेरणा देते यदि वे संसार में रहते या बंधन में रहते। लेकिन जो निर्ग्रन्थ हो चुका है, जिसने खुले आकाश का रसास्वादन कर लिया है, जिसने खुली हवाओं और खुली फ़िज़ाओं का बोध पा लिया है, वह तो यही कहेगा, 'तुम रखो स्वर्ण पिंजर अपना, अब मेरा पथ तो मुक्त गगन।' __ मैंने तो इस बंधन को तोड़ ही दिया है, तुम बार-बार मुझे अपने पिंजरे में बुलाते हो और मैं यही आह्वान करता हूँ तोड़ो इन पिंजरों को, एक बार बाहर आकर देखो, खुद ही जान जाओगे आत्म-मुक्ति का आनन्द क्या होता है। जीवन के चालीस वर्षों में जो आनन्द पाया वह मुक्ति के आनन्द के समक्ष शून्य है। उसे भी तुमने आनन्द माना और यहाँ भी आनन्द पाओगे। वह आनन्द न था एक भ्रम था, यहाँ आनन्द की अनुभूति है। एक बार मुक्ति का स्वाद चख लो, फिर तो चौबीसों घंटे आनन्द, आह्लाद, परमधन्यता और परम पुरस्कार से भर जाओगे।
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