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हम महावीर की तरह अपने वस्त्र तक का दान करके पूर्ण अपरिग्रही तो नहीं बन सकते और न ही कर्ण की तरह कवच-कुंडल देकर जीवन का दान कर सकते हैं, पर उनसे प्रेरणा लेकर 'फूल-पांखुड़ी' जितना तो देते रहने का संकल्प ले ही सकते हैं। जिस घर से याचकों को खाली हाथ लौटा दिया जाता है उस घर से लक्ष्मी चली जाया करती है, पर अगर 'फूल-पांखुड़ी' देते रहने की प्रवृत्ति बनी रहे तो वहां स्वयं विष्णु का वास होता है। यदि आप धन का दान नहीं कर सकते तो कोई बात नहीं, आपके पास जो ज्ञान और हूनर है आप उसे ही औरों को सिखाकर मानवता के मददगार बन सकते हैं। अपने मित्रों और कर्मचारियों के बेवक़्त में ज़रूर काम आइए। अगर उनकी मुश्किलों में आप उनके मसीहा नहीं बनेंगे, तो ज़रा सोचिए कि आखिर वे किसकी शरण में जाएँगे। कहते हैं अच्छे काम करने वाला स्वर्ग जाता है और बुरे काम करने वाला नरक। यदि किसी के मरने पर लोग कहते मिलें कि बड़ा अच्छा आदमी था तो समझ लीजिएगा कि वह स्वर्ग ही गया है। अच्छी मनोदशा, अच्छा व्यवहार और अच्छा कार्य ही जीवन का स्वर्ग है। जुबान को नरम रखिए, आंखों में शरम रखिए और दिल में रहम रखिए, स्वर्ग खुद आप तक चलकर आएगा।
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