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________________ 1 मन है। बीस साल पुरानी गाँठों को भी आप खींच रहे हैं, उन्हें ढो रहे हैं । खींचने से गाँठें मजबूत होती जाती हैं और खुलने का नाम भी नहीं लेतीं । हम लोग एक शहर में थे । वहाँ एक व्यक्ति ने पन्द्रह दिन के उपवास किए। उपवास के उपलक्ष्य में उसने सम्पूर्ण समाज के लिए भोज का आयोजन किया। नगर में उस समाज के जितने भी लोग थे उन सबको उसने आमंत्रित किया। सुबह - सुबह समाज के चार-पांच वरिष्ठ लोग हमारे पास आये और कहने लगे- 'महाराजश्री, आज समाज के आठ-दस हजार लोग उस व्यक्ति द्वारा आयोजित भोज में आएँगे लेकिन उसका एकमात्र सगा भाई और उसका परिवार नहीं आएगा।' मैंने पूछा - 'क्यों?' वे कहने लगे- 'दोनों भाइयों में किसी बात को लेकर तनातनी हो गई थी जिसके कारण उनमें वैर-विरोध की भावना बढ़ती ही चली गई ।' स्मरण रखें- 'अगर कटुता को समय रहते मिटा लिया जाता है तो वह मिट जाती है लेकिन उसे भविष्य के लिये छोड़ दिया जाए तो समय बीतने के साथ-साथ वैर-विरोध, कटुता और वैमनस्य बढ़ते ही जाते हैं। समाज के लोगों ने मुझसे निवेदन किया- 'आप चलें उस व्यक्ति के घर और उसे समझाएँ। मैं सहमत हो गया कि अच्छा चलता हूँ । उन लोगों के साथ मैं उन महानुभाव के घर पहुँचा । वह दरवाजे पर स्वागत के लिए आया और मुझे भीतर ले गया। मैं उसके कहने के पूर्व ही आँगन में बैठ गया। मेरे बैठते ही वह भी सामने बैठ गया। मैंने कहा- 'आज तो तुम्हारे लिये बहुत खुशी और सौभाग्य की बात है कि आज तुम्हारे घर में पूरे समाज का भोजन है। उसने कहा, 'नहीं महाराज, मेरे घर में नहीं है । वह मेरा भाई लगता था किन्तु अब नहीं है। उसके घर में भोजन है।' मैंने कहा- 'अच्छा, तुम तो आओगे न ? उसने कहा- 'किसी हालत में नहीं, मर जाऊँगा तब भी नहीं । अरे, हमारे बेटेबेटियों की शादियाँ हो गईं । किन्तु मैं उसके घर नहीं गया और न वह मेरे घर आया। मैंने पूछा- ‘बात क्या है?' वह कहने लगा- 'अब आपसे क्या छिपाना । बीस-बाईस साल पहले उसने समाज में मेरा अपमान कर दिया था, अपशब्द कह दिये थे। फिर बात बढ़ती चली गई और हमने एक-दूसरे के घर आनाजाना और खाना-पीना सब बंद कर दिया ।' 1 89 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003878
Book TitleKaise Sulzaye Man ki Ulzan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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