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देकर भी नाम की जबर्दस्त आकांक्षा है। दान देते हैं पचास हजार का और सम्मान पाने की इच्छा है पांच लाख की। मैं उन्हें प्रणाम करूँगा जो देते तो हैं लेकिन वापस पाने की आकांक्षा नहीं रखते। उन्हें भी प्रणाम है जो देते तो हैं पर पत्थर पर नाम लिखाने की चाह नहीं करते। जो समर्पण तो करते हैं लेकिन माला पहनने की कोशिश नहीं करते। याद है न- 'देनहार कोई और है, जो देवत है दिन रैन। लोग भरम हम पर करे, तासें नीचे नैन।'
बात उस समय की है जब गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को उनकी अमर कृति 'गीतांजलि' के लिये नोबेल पुरस्कार मिला था। इस खबर से पूरे देश में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। देश-विदेश से उन्हें बधाई-संदेश आने लगे।
छोटे-बड़े, नामी, गिरामी सभी लोग उन्हें बधाई देने के लिए उनके घर आने 'लगे। दूर-दूर से लोग आ रहे थे, लेकिन एक व्यक्ति जो उनका पड़ोसी ही था, बधाई देना तो दूर, यह सब देख कर बेचैन हो रहा था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि टैगोर ने ऐसा कौनसा तीर मार लिया कि लोग उमड़े चले आ रहे थे बधाई देने के लिये। लोग बधाई ही नहीं दे रहे हैं बल्कि टैगोर के पांव भी छू रहे हैं। वह पड़ोसी मन ही मन कुढ़ रहा था।
रवीन्द्रनाथ को भी यह बात समझ नहीं आई कि उनका पड़ोसी उनसे मिलने क्यों नहीं आ रहा है? वह नाराज है या कोई और बात है। एक दिन जब वे सुबह टहल रहे थे तो उस पड़ोसी के घर पहुंच गए और झुककर उस व्यक्ति के चरण छूते हुए बोले- 'आशीर्वाद चाहूँगा।' गुरुदेव के व्यवहार से वह व्यक्ति आश्चर्य में पड़ गया कि वह व्यक्ति जिससे मिलने और जिसके पाँव छूने बड़े-बड़े लोग आ रहे हैं, वह अपनी सफलता के लिए आशीर्वाद लेने के लिए पड़ोसी के घर आकर उसके पैर छुए। उसे आत्मग्लानि होने लगी। उसका गला भर आया, वह बोला- 'गुरुदेव, आप ही नोबेल पुरस्कार पाने के सर्वथा योग्य हैं। आप जैसे व्यवहार के धनी व्यक्ति को ही यह पुरस्कार मिलना चाहिए।'
__ श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर ने जो कुछ किया, उसे कहते हैं बड़प्पन। आदमी धन-दौलत या पद से बड़ा नहीं होता। वह बड़ा होता है व्यवहार से। जो धनवान, बलवान, गुणवान, ज्ञानवान होने के बाद भी अभिमान से दूर रहे वही
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