SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और गृहस्थी की भी हैं। जो साधु मर्यादित जीवन नहीं जीता, क्या आप उसे साधु कहेंगे? मैं पूछना चाहूँगा कि जो गृहस्थ मर्यादा में नहीं जीता, क्या उसे गृहस्थ या सुश्रावक कहा जाए? पर मैं देखा करता हूँ कि व्यक्ति की बुरी आदत है औरों पर अंगुली उठाना, दूसरों पर तोहमत लगाना। दूसरा अगर जरा-सी भी मर्यादा भंग करता है तो व्यक्ति उस पर टिप्पणी करता है लेकिन स्वयं के अमर्यादित आचरण को नजरअंदाज कर देता है। पड़ौसी की बेटी जरा भी मर्यादा का उल्लंघन करे तो हम उसे चर्चा में ले आते हैं और हमारी बेटी कहाँ आ-जा रही है इसकी खबर ही नहीं रख पाते। औरों के ऊपर टिप्पणी करने की आदत, दूसरों की नुक्ताचीनी करने की आदत, औरों की ग़लतियाँ निकालने की आदत में हमें पता नहीं चलता कि हम अपनी ही कमियों पर टिप्पणी कर रहे हैं। जब हम दूसरों पर एक अंगुली उठाते हैं तो तीन अंगुलियाँ हमारी ओर ही मुड़ी होती हैं । हाँ, अगर हम उसकी अच्छाइयों की ओर अंगुली उठाते हैं तब यही प्रकट होता है कि जितना वह अच्छा है उससे 75 प्रतिशत हम भी अच्छे हैं क्योंकि तब भी तीन अंगुलियाँ हमारी ओर रहती हैं। दूसरों पर टिप्पणी करना, अंगुली उठाना और उनकी ईमानदारी पर प्रश्नचिह्न लगाना बहुत सरल होता है लेकिन स्वयं ईमानदारी से जीना बहुत मुश्किल होता है। तुम एक अधिकारी हो और कोई तुम्हें रिश्वत में मोटी रकम देना चाहता है, उस समय अगर तुम अपने मन पर संयम रखने में समर्थ हो सके तो तुम्हारे जीवन में साधुता है। आप जंगल में अकेले चले जा रहे हैं और एक अकेली सुंदर युवती भी वहीं से जा रही है, ऐसे में अगर आप अपने मन और आँखों को संयम में रख सकें तो पक्का जानिए कि आप साधु हैं। आप दुकान पर बैठे हैं कि एक ग्रामीण-सा, भोलाभाला-सा व्यक्ति आपकी दुकान पर आया। उसने सामान खरीदा और सौ की जगह पाँच सौ का नोट आपको दे दिया, ऐसे में आपके अंदर लोभ की वृत्ति न जगे और आप यह सोचें कि यह गलत है। मैं बेईमानी का धन घर में नहीं ले जाऊँगा। आपने उसे चार सौ रुपए वापस लौटा दिये, यह आपकी साधुता है। जब तुम्हें सड़क पर पांच का नोट मिलता है तो तुम 124 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003878
Book TitleKaise Sulzaye Man ki Ulzan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy