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उस पर टिके। पहले से व्याप्त दूषित तत्त्वों के निवारण के लिए स्वयं की प्राणधारा और चैतन्य-धारा को हाथों के अंतिम छोर तक विस्तृत होने दे। साधक सूक्ष्म-से-सूक्ष्म संवेदना पर जागरूक हो। हाथों की स्थिति सहज-स्वस्थ-सौम्य हो जाने पर साधक हृदय के मध्य क्षेत्र में अपनी सजगता को केंद्रित होने दे। वहां प्रवहमान और संवेदन के सूक्ष्म तत्त्व को पहचाने। हृदय का हर दूपण, प्रदूषण, विकार साधक की ध्यान-चेतना से स्वतः निर्मल रूपांतरित होगा।
हृदय से साधक उदर-भाग की ओर उतरे। आंतों में पड़े मल-मूत्र पर साधक जागे। यही है वह तत्त्व, जिससे यह स्थूल काया पोषित होती है। गंदगी, मांस, मिट्टी से भरी इस देह के प्रति व्यक्ति की मूर्छा ही उसका मिथ्यात्व है। शरीर के विकार भी इसी मल-मूत्र से पोषित होते हैं। अच्छे से अच्छा खाया-पीया सब कुछ इन्हीं आंतों में मल-मूत्र के रूप में पड़ा है। साधक यह स्थिति जाने, देह-मूर्छा से उपरत हो। उदर-भाग की दूषित या अपान वायु, हर वेदना-संवेदना का साधक द्रष्टा बने, जाने और उपरत होता जाए। काया की अशुचि स्थिति का निरीक्षण।
साधक ध्यान की निर्विकार चेतना से मल-मूत्र-स्थान का भी निरीक्षण करे। वहां के प्रदेशों में कोई अनुकूल-प्रतिकूल संवेग या संवेदन हो, विकार की अनुभूति हो, तो साधक जागे; अपनी चेतना की धारा को विकारों के घनत्व को काटने के लिए वहां तक उतरने दे। विकार उद्वेलित करें, तो साधक विचलित न हो। साधक के लिए यह स्थिति भी शुभ है। साधक उस विकार पर टिके, जागे; ध्यान की चेतना बनी रहे। विकार की जड़ता स्वतः टूटेगी, बिखरेगी और साधक निर्विकार स्थिति का स्वामी बनेगा।
विकारों की जड़ें ठेठ पांवों तक व्याप्त रहती हैं। साधक की साक्षिता और सजगता अत्यंत सूक्ष्मता से पांवों की ओर व्याप्त हो। शरीर के इस अधोभाग में ध्यान की सजगता के प्रगाढ़ होने से जहां काम-क्रोध की दूषित ऊर्जा का रूपांतरण होगा, वहीं जड़ता, वेदना और मूर्छा का भी विरेचन होगा।
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