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पिछले दिनों हम जयपुर में थे। वहाँ एक महानुभाव बहुत-सी संस्थाओं से जुड़े हुए किसी के अध्यक्ष थे, किसी के मंत्री। मैंने पूछा, 'आप इतनी संस्थाओं को कैसे संभालते हैं, इन सबके बीच अपने मन को कैसे शांत रख पाते हैं और कैसे समझाते हैं।' उन्होंने कहा, 'मैं ऐसी मीटिंग में ही बैठता हूँ जो शांतिपूर्वक सम्पन्न होती है। अगर कोई भी जोर से बोलता है तो मैं वहाँ से खड़ा हो जाता हूँ। मीटिंग का मूल्य है, समाज का मूल्य है, उस व्यक्ति का भी मूल्य है पर उससे भी ज्यादा मूल्यवान मेरे मन की शांति है। जहाँ मेरे मन की शांति भंग होती है मैं ऐसी सभा में बैठना पसंद नहीं करता। उस सभा से मैं निकल आता हँ और कह आता हूँ कि जब आप शांत हो जाएँ तो मुझे बुला लेना।'
बहस, तर्कबाजी और व्यर्थ में किसी बात को घसीटना कब तक करोगे। सारी दुनिया को सुधारने का ठेका तुमने तो नहीं ले रखा है। अगर किसी को तुम्हारी बात नहीं माननी तो कब तक घसीट-घसीट कर मनवाने की कोशिश करोगे। एक व्यक्ति से किसी ने पूछा 'तुम्हारा नाम क्या है ?' उसने कहा 'घ.....घ......घ...... घसीटाराम' फिर उसने पूछा 'तुम्हारा क्या नाम है?' पहले वाले ने कहा 'नाम तो मेरा भी घसीटाराम है, पर मैं इतना घसीट कर नहीं बोलता।' ___ बात तो आप भी कहते हैं और मैं भी करता हूँ फ़र्क सिर्फ इतना है कि घसीट-घसीट कर हम बात को कमज़ोर कर देते हैं और जब किसी बात का अधिक दबाव बनाते हैं, तर्क करते हैं तो बात तक़रार में बदल जाती है। नरम लफ़्ज़ों में ठोस बात कहें, लेकिन कड़े लफ़्ज़ों में कभी भी ओछी बात न कहें। पीठपीछे भी तारीफ़ . व्यवहार के आईने को साफ-सुथरा रखने के लिए अगली बात है कि किसी के के बारे में पीठ पीछे टिप्पणी न करें। यह आपके व्यवहार का दोष है। जब सामने वाले व्यक्ति को ख़बर लगती है
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