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सिंहन के वन में वसिये, जल में घुसिये, कर में बिछुलीजे । कानखजुरे को कान में डारि के, सांपन के मुख अंगुरी दीजे ॥
भूत पिशाचन में रहिये अरु जहर हलाहल घोल के पीजे । जो जग चाहै जिओ रघुनन्दन, मुरख मित्र कदे नहीं कीजे ॥
सांप, बिच्छू और कानखजुरे उतने खतरनाक नहीं होते और शायद हलाहल ज़हर भी उतना नुकसानदेह नहीं होता है जैसा मूर्ख मित्र । तुम तो रहोगे उसके प्रति विश्वस्त और वह तुम्हें नुकसान पहुँचाता ही रहेगा। मूर्ख मित्र की बजाय बुद्धिमान दुश्मन कहीं ज्यादा अच्छा होता है । इसीलिए तो कहते हैंसांड के अगाड़ी से, गधे की पिछाड़ी से पर मूर्ख मित्र से चारों ओर से बचना चाहिए ।
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बचें, स्वार्थी मित्रों से
जितने नुकसानदेह मूर्ख मित्र होते हैं उतने ही नुकसानदेह स्वार्थी और चापलूस मित्र होते हैं। अगर आप बच सकते हैं तो जिंदगी में उन शत्रुओं से नहीं, उन मित्रों से बचिए जो चापलूस होते हैं। सामने आपकी तारीफ़ करते हैं, पर भीतर - घात करते रहते
हैं। स्वार्थी मित्र हमारे साये की तरह होते हैं, जो सुख की धूप में साथ चलते हैं, परन्तु संकट के अंधेरे में साथ छोड़ देते हैं ।
मुझे याद है दो मित्र, झील के किनारे घूम रहे थे, तभी एक मित्र ने देखा कि झील पर एक बोर्ड लगा था जिस पर लिखा था डूबते हुए को बचाने वाले को पाँच सौ रुपये का ईनाम! उसने अपने मित्र से कहा कि मैं पानी में उतरता हूँ, तुम्हें तैरना आता ही है । मैं कहूँगा बचाओ- बचाओ, तुम मुझे बाहर निकाल लाना पाँच सौ रुपये का ईनाम आधा-आधा बांट लेगें। वो व्यक्ति पानी में उतरा, गहरे पानी में चला गया और चिल्लाया, बचाओ- बचाओ ! किनारे पर खड़ा मित्र सुन रहा है, पर बचाने के लिए नहीं आ रहा, तो डूबते हुए मित्र ने कहा, मेरी आवाज़ सुन रहे हो फिर बचाने के लिए क्यों नहीं आते ? उसने कहा, मित्र तूने बोर्ड का एक तरफ का ही भाग पढ़ा है इसमें दूसरी तरफ लिखा है कि मरे की लाश निकालने वाले को एक हजार रुपये का ईनाम !
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