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यह है कि शहर के सबसे संपन्न और प्रतिष्ठित व्यक्ति को भी उसका आंतरिक दुःख उसे खोखला कर रहा है ।
शांति में ही सुख
' संपन्न ही सुखी है' अब इस परिभाषा को बदल दिया जाना चाहिए । मध्यमवर्गीय प्रायः अधिसम्पन्न व्यक्ति की सुविधाओं को देखकर सोचा करते हैं कि इसके पास कार है, बड़ा बिजनेस है, महलनुमा मकान है, सुंदर-सी पत्नी है - अतः यह जरूर सुखी होगा, लेकिन इस बाह्य सम्पन्नता में कितनी विपन्नता छिपी है, यह बात कोई उसके दिल से
पूछे ! कितनी भागमभाग है, कितने तनाव, कितनी चिन्ताएँ हैं, यह केवल वही जानता है क्योंकि उसके पास शांति से बैठने के लिए समय ही नहीं है । वह दो घड़ी भी चैन से नहीं बिता सकता । संपन्नता व्यक्ति को सुविधा दे सकती है, किन्तु सुख नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि बाहर से मुस्कुराने वाला व्यक्ति भीतर में घुट-घुट कर जी रहा हो । यदि आप धन-दौलत, जमीन-जायदाद को ही जीवन का सुख मानते हैं तो आपकी दृष्टि से मैं दुःखी हो सकता हूँ क्योंकि मेरे पास तो कुछ भी नहीं है न धन, न दो फुट ज़मीन और न ही बीवी-बच्चे ! फिर भी मैं आपसे ज़्यादा सुखी हूँ क्योंकि मेरे पास शांति है, अन्तर्मन की शांति । यदि तुम सुख की दो रोटी खा सको और रात में चैन की नींद सो सको और कोई मानसिक जंजाल न हो, तो जान लेना कि तुमसे अधिक सुखी कोई नहीं है।
सुख और दुःख व्यवस्थाओं से कम, वैचारिक तौर पर अधिक उत्पन्न होते हैं। व्यवस्थाओं के यथावत् रहते हुए भी आदमी कभी दुःखी और कभी सुखी हो जाता है । निमित्तों के चलते सुख और दुःख के पर्याय बदलते रहते हैं । ये निमित्त भी बाहर ही तलाशे जाते हैं, पर हमें न तो कोई दुःख दे सकता है और न ही सुख । अपने सुख और दुःख के जिम्मेदार हम स्वयं हैं, अन्यथा जो व्यवस्था कल तक सुख दे रही थी वह आज अचानक दुःख क्यों देने लगी? कल तक जो पत्नी सुख देती हुई प्रतीत हो
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