________________
करना है, तो उसके लिए तो अन्तर्यात्रा करनी ही पड़ेगी।
हमारा अपना अस्तित्व हमारे भीतर है और शेष जो कुछ है, सब बाहर के हैं। आदर्श पुरुष हमारी साधना के आलंबन हो सकते हैं, लेकिन हमारे अन्तर अस्तित्व में नहीं हो सकते। महावीर और बुद्ध यह कभी नहीं कहते कि तुम मुझे भगवान के रूप में विराजमान करो। वे तो यह कहते हैं कि तुम स्वयं यह अनुभव करो कि तुम भगवान हो, तुम्हारे भीतर भी भगवत्ता की सुवास है। भले ही आँख बंद करने पर तुम्हें घुप्प अँधेरा दिखाई दे, लेकिन इसी अँधेरे में से तुम ज्योति प्रकट कर सकते हो, प्रकाश की रेखा खींच सकते हो।
हमारी अपनी चेतना को छोडकर भीतर में ऐसा कुछ है ही क्या जिसे हम भगवान कह सकें। तुम कहोगे देह, पर देह तो पशु की भी है। देह होने मात्र से तुम भगवान थोड़े ही हो सकते हो। तुम कहोगे मन, पर मन तो हमारा पश के मन से भी बदतर बना हुआ है। कितना द्वेष, कितनी हिंसा, कितना व्यभिचार, वैर-वैमनस्य
और कषाय के भाव पल रहे हैं हमारे चित्त में, हमारे मन में। शरीर की और भौतिक गिरावटों को तो कदाचित् समाज और परिवार के चलते तुम रोक सकते हो, पर मन की गिरावट! अगर तुम नोट करना शुरू कर दो इन गिरावटों को और पढ़ने की कोशिश करो तो तुम्हें विश्वास ही नहीं होगा कि मैं समाज में धार्मिक कहलाता हूँ, पर मेरा अन्तरमन कितना गिरा हुआ है। इस मन में कितनी बार कषाय के भाव पैदा हुए हैं, हत्या के, व्यभिचार के, चोरी-डाके के कितने-कितने विचार उभरे हैं, हमारे मन में। देह पशु है, पर मन, वह तो पशु से भी बदतर बना हुआ है। हमें एक बहिन कह रही थी कि मुझे अपने भीतर सिवाय पशु और अंधकार के कुछ नहीं दिखता। आखिर ध्यान के पहले चरण में जैसे ही प्रवेश करोगे तो तुम्हारे तल पर जो पशुता पल रही है, अंधकार पल रहा है, वही तो दिखाई देगा और आधे घंटे तक भी निरीक्षण कर लो अपने मन का, तो पता लगेगा कि हमारे मन में कितनी पशुता पल रही है, हमने अपने हाथों अपने मन को नरक बना रखा है। कभी 'ऑबजर्व' करके तो देखो, तो हमें पता लगेगा कि हम बाहर से दिखने में मनुष्य हैं और भीतर से पशु। बाहर से हँसते-खिलते दिख रहे हो, पर भीतर से उद्वेलित । हमारे अन्तरमन पर पहले तल पर पशुता है, दूसरे तल पर मनुष्यता है और देवता तो तीसरे तल पर है। आदमी प्रायः पहले तल में जीता है, इसलिए इस तल का निरीक्षण करने के बाद अगला कदम आगे बढ़ाओ।
हम सदा स्वयं को भुलाने का प्रयास करते आये हैं। कभी एकांत भी आया, जहाँ अपने में उतर सकते थे, लेकिन वहाँ भी खुद को भूलने का प्रयास करने लगे। हँसीखेल में जीए, आमोद-प्रमोद में जीए, ताकि कभी भी आत्मनिरीक्षण करने का भाव
| 43
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org