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________________ हम एकतार नहीं हो पाये। हम केवल बाहर तक सीमित रह गये, भीतर तक न उतर पाये । महावीर के समवशरण या उनके दैविक वैभव का तो बढ़ा-चढ़ाकर हमने वर्णन कर लिया पर महावीर का आंतरिक व्यक्तित्व ! मैं समझता हूँ कि महावीर का जीवन-चरित्र लिखने वाले अधिकांश लोग इस मामले में महावीर के प्राणों तक नहीं पहुँचे पाये, वे लोग केवल बाहर तक सीमित रह गये । उसका परिणाम यह निकला कि हमने महावीर के गुणगान तो बहुत कर लिये, पर हमारा अपना जीवन उनके विपरीत बना रहा । महावीर ने परिग्रह छोड़ा और हम अनाप-शनाप परिग्रह जोड़ रहे हैं । जीसस कहते हैं कि शत्रु को प्रेम करो और हम मित्र को भी ईमानदारी से प्रेम नहीं कर पाते । त्याग के नाम पर भी हमारे जीवन में जो चल रहा है, वह त्याग नहीं है, वह प्रदर्शनभर है। त्याग में तो सोना भी मिट्टी की तरह छूट जाना चाहिए और हम मिट्टी को भी सोना मान रहे। हमारा त्याग तो जबरदस्ती पेड़ से पत्ते को तोड़ने जैसा हो रहा है। हमारा त्याग ज्ञानमूलक हो। पत्ता पीला पड़ा, स्वत: झड़ गया, बोझा था, छूट गया । मैंने सुना है : दो संन्यासी किसी यात्रा पर थे। एक वृद्ध था, दूसरा युवक । वृद्ध जहाँ जाता, ठहरता, पूछता रहता कि यहाँ कोई खतरा तो नहीं है। रात को अपनी गठरी सिर के नीचे रखकर सोता। हर पंद्रह मिनट में गठरी के भीतर हाथ डालकर टटोलता । रात जितनी गहरी होती, उतना ही भयभीत चित्त बन जाये वह । युवा संत ने सोचा आखिर बात क्या है? जब देखो तब संत का चित्त भयभीत बना रहता है । एक दिन संत निवृत्त होने गये थे । जाते-जाते युवा संत से कह गये कि गठरी का पूरा-पूरा ध्यान रखना। इधर-उधर न हो जाना। पीछे से युवा संत ने उस गठरी को खोला कि आखिर राज क्या है इस गठरी में ? देखा, भीतर सोने की ईंट थी । युवा संत समझ गया कि फकीर साहब के चित्त के भयभीत रहने का यही कारण है। उसने सोने की ईंट रख दी। उसने गठरी को ज्यों का त्यों वापस तैयार कर रख दिया । वृद्ध संत वापस आया। उसने गठरी उठाई और दोनों आगे बढ़े। किसी कारणवश तीन-चार दिन बाद संत ने अपनी गठरी खोली । देखा, भीतर में सोने की ईंट नदारद थी और उसकी जगह मिट्टी की ईंट रखी थी । भीतर-ही-भीतर हँसा वह । रात ढलने को आ रही थी । युवा संत ने कहा- फकीर साहब, किसी दूसरे गाँव चलें । यहाँ खतरा हो सकता है, क्योंकि यह जंगल है। वृद्ध संत ने मुस्कराकर कहा- अब भला खतरा किस बात का, सोना ही माटी निकल गया । जिस दिन बोध हो जाये हमें कि सोना माटी है, उस दिन ही मुक्त हो पाओगे तुम सोने से ओर सोने की आसक्ति से । इसलिए अगर जीवन में आनन्द को उपलब्ध | 23 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003872
Book TitleDhyan Yog Vidhi aur Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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