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________________ प्रारंभ हो जाता है। __ मनुष्य प्राय: परोक्ष में ही जीता है। दैहिक इन्द्रियों या मन की वृत्तियों में ही उसके जीवन का अधिकांश भाग पूर्ण हो जाता है। वह सुखानुभूति तो कर सकता है, पर शांति और आनन्द उससे दूर रह जाते हैं। शास्त्रों का स्वाध्याय करके या अपनी तर्कबुद्धि के द्वारा पंडित तो बन सकता है, पर सत्य के आनन्द की साधना नहीं कर सकता। आनन्द न देह का स्वभाव है, न मन का, वह तो आत्मा का स्वभाव है। हम प्रतिदिन ध्यान में संकीर्तन करते हैं, 'सहजानन्दी शुद्ध स्वरूपी अविनाशी हूँ आत्मा छ'- यह इस सत्य की अभिव्यक्ति है कि सहज आनन्द आत्मा का निज स्वभाव है। जो स्वभाव से हटकर परभाव में जी रहा है, जो तनिक भी आत्मा के करीब नहीं पहुँच पाया, वह भला उसके मूल स्वभाव, आनन्द से कैसे परिचित हो पाएगा। इसलिए इस धरती पर जितने विचारक हुए, सबके विचार अलग-अलग हो सकते हैं, उनकी जीवन-शैली अलग हो सकती है, लेकिन आत्मानन्दी स्वभाव सबका एकसम है। शरीर के साथ जब तक तादात्म्य-बुद्धि बनी रहेगी या जब तक मन का संपर्कसूत्र कायम रहेगा, तब तक हम दुःख या सुख में घिरे रहेंगे और ये दोनों जब हट जायेंगे, तो भीतर का आनन्द स्वतः स्फुटित होगा। हम सुख-दुःख में जीते हैं। ये दोनों पर के निमित्त से अपने अस्तित्व का रूपान्तरण करते रहते हैं । सुख कभी दुःख में बदल जाता है और दुःख कभी सुख में बदल जाता है। लेकिन जो अंतर के आनन्द को पहचान चुका है, भीतर के वैभव को पा चुका है, उसके जीवन में न तो कभी सुख हावी हो सकता है और न कभी दुःख। इसे हम यों समझें, जैसे किसी व्यक्ति ने दैनिक समाचार-पत्र में लॉटरी का विज्ञापन पढ़ा और लॉटरी खरीद ली। कुछ दिन बाद लॉटरी खुली तो आश्चर्यचकित रह गया यह पढ़कर कि प्रथम पुरस्कार उसी के नाम खुला है। सुबह से साँझ तक उसका चित्त प्रसन्नता से सराबोर रहा, एक लाख का इनाम जो खुल आया था। और प्रसन्नता में इतना झूम गया कि उसने साँझ को परिजनों को भोजन पर आमन्त्रित कर लिया और दो-तीन हजार रुपये खर्च भी कर डाले। रात भर वह खश-मिजाज बना रहा और कल्पनाओं के आकाश में उड़ानें भरता रहा, पर उसकी खुशियों पर तब पानी फिर गया, जब सुबह समाचार-पत्र में पुनः विज्ञापन था कि कल जो पुरस्कार घोषित किये गये थे उसमें प्रथम पुस्कार का अंतिम अंक दो की बजाय तीन था। अब संशोधित विज्ञापन पढकर उसके पाँवों तले से जमीन ही खिसक गई। लगा जैसे किसी ने उसके साथ धोखा कर दिया है। सुबह तक जो लॉटरी सुख का कारण बनी 18 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003872
Book TitleDhyan Yog Vidhi aur Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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