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मनोभाव, अन्तर्दशा, समझ सका है कौन? बोले, वह समझे नहीं, जो समझे, सो मौन ॥ 19॥ सद्गुरु बाँटे रोशनी, दूर करे अंधेर । अंधों को आँखें मिलें, अनुभव भरी सबेर॥ 20॥ प्रज्ञा-पुरुष प्रकाश दे, अन्तर्-दृष्टि योग। समझ सके जिससे स्वयं, मन में कैसा रोग॥ 21 ।। चित्-शक्ति की चेतना, अन्तस् का आह्वाद। मुखरित होता मौन में, शाश्वत सोहं नाद ॥ 22 ॥ नया जन्म दे स्वयं को, साँस-साँस विश्वास। छाया दे संसार को, पर निस्पृह आकाश ॥ 23 ॥ मुक्ति मानव मात्र का, जीवन का अधिकार। मन की खट-पट जो मिटे, तो हो मुक्त विहार ॥ 24 ॥ समझे वृत्ति-स्वभाव जो, साक्षी-भाव के साथ। तो समझो होने लगा, उर में सहज प्रभात ॥ 25 ॥ रूप बने, बन-बन मिटे, चिता सजी सौ बार। जनम-जनम के योग को, दोहराया हर बार ॥ 26 ॥ संबोधि से टूटती, भव-भव की जंजीर। ज़रा झाँककर देख लो, अन्तस् में महावीर ॥ 27 ।। सोने के ये पीजरे, मन के कारागार। टूटे पर, कैसे उड़े, नभ में पंख पसार॥ 28 ॥ हर मानव से प्रेम हो, हो चैतन्य-विकास। आत्मोत्सव के रंग में, भीगी हो हर साँस ॥ 29 ॥ कालचक्र की चाल में, बनते महल मसान। फिर कैसा मन में गिला, सदा रहे मुस्कान ॥ 30 ॥ बीते का चिन्तन न कर, छूट गया जब तीर। अनहोनी होती नहीं, होती वह तक़दीर ।। 31 ॥ करना था, क्या कर चले? बनी गले की फाँस। पंक सना, पंकज मिला, बदलें अब इतिहास ॥ 32॥
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