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________________ तो ठीक है, माफ किया जा सकता है, लेकिन यह तो मुझे रोज ही भगा देता है । भगवान ने कहा, ठीक है तुम जाओ, मैं सूर्य को बुलाता हूँ । भगवान ने सूर्य को बुलाया और कहा, तुम प्रतिदिन अंधकार को तंग क्यों करते हो? वह अगर धरती पर जीना चाहता है, तो तुम उसे क्यों परेशान करते हो? सूर्य ने कहा, मैं आपकी बात मान लेता हूँ, आप अंधकार को बुला दीजिए, मैं उससे क्षमा माँग लूँगा। लेकिन यह तो कभी संभव नहीं हो सकता कि जहाँ सूर्य हो वहाँ अंधकार प्रवेश कर पाए। सूर्य तो क्षमा माँगने को तैयार है लेकिन अँधेरा उसके सामने आए तो सही ! जिसने अपने जीवन में, अपने अस्तित्व में कहीं कोई भोर कर ली, सूर्योदय कर लिया, कोशिश करने के बावजूद अंधकार उसके आगे-पीछे नहीं फटक पाएगा । इसलिए अंधकार की व्याख्याओं को पीछे जाने दो और प्रकाश की पहल करो । लाख तुम्हारा जीवन कैसे आलोकित हो सकता है, उस प्रकाश-पुंज के बारे में सोचो। तुम सदा ही अंधकार और मृत्यु के बारे में सोचते रहे हो । जब तक तुम इनकी ही व्याख्या करते रहोगे, तब तक जीवन के बारे में नहीं जान पाओगे। जीवन को, जीवन की अच्छाइयों को, प्रकाश को कभी उपलब्ध नहीं कर पाओगे। सच्चाई तो यह है कि तुम मृत्यु से बहुत भयभीत हो। तुम्हारे घर में पानी गर्म करने का हीटर लगा हुआ हो, तो तुम उस पानी को छूने के लिए तैयार नहीं, इतने सावधान । पहले स्विच बंद करोगे, हीटर को बाहर निकालोगे, तब देखोगे कि पानी कितना गर्म हुआ, मृत्यु के प्रति कितने सावधान । मृत्यु के भय के कारण तुम जीवन भर सावचेत रहते हो। एकएक कदम फूँक-फूँक कर रखते हो। पर क्या हम मृत्यु के पार अमृत-जीवन के प्रति भी इतने ही सचेत हैं ? सच बोल नहीं पाते और झूठ बोलने से डरते नहीं, ईमानदारी तो बरत नहीं पाते और बेईमानी करने में हिचकिचाते नहीं । जीने के रूप में जी नहीं पाते और मरने के नाम पर मरने से बचते रहते है। अच्छा होगा, हम अपने जीवन में मृत्यु का नहीं, जीवन का पाठ पढ़ने की कोशिश करें। जीवन की पोथी बाँचें । यह ध्यान - शिविर जीवन का पाठ पढ़ने का ही आयोजन है । मैं चाहता हूँ कि आप अंधकार से निकलकर प्रकाश का, प्रकाशमय जीवन का रसास्वाद करें। स्वर्ग का प्रलोभन और नरक का भय आपको यहाँ लाए, यह मैं नहीं चाहता। जीवन में कुछ पाना है, स्वयं को उपलब्ध होना है, तो इन दोनों को दूर हटाना होगा। ध्यान की गहराइयों को पाने के लिए दोनों से निरपेक्ष रहना होगा। स्वयं सापेक्ष होना होगा । मुझे हँसी आती है, जब मैं भय और प्रलोभन के किस्से सुनता हूँ । बुद्धि पर तरस आता है, जो इन अर्थहीन बातों को मानने को तैयार रहती है। लोगों को ब्रह्मचर्य की 12 | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003872
Book TitleDhyan Yog Vidhi aur Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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