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________________ ___ मैं आपसे यही कहना चाहूँगा। अपने स्वभाव को, निज-चेतना को उपलब्ध किये बिना, स्वानुभव के बिना अगर लम्बी-ऊँची यात्राएँ कर भी ली तो वहाँ यही प्रश्नचिन्ह रहेगा कि तुम कहाँ पहुँचे? स्वयं को कहाँ खोकर आए हो? इसलिए ध्यान का पहला धर्म है कि व्यक्ति स्वयं को पहचानने की कोशिश करे। वह सर्वज्ञ है जो स्वयं को सर्व-विधि जानता है। वे भी सर्वज्ञ होने के करीब हैं जिनमें चेतना का अहसास है। जो स्व का ज्ञाता है वह सर्वज्ञ है। आचारांग में प्रभु ने कहा, 'जे एगं जाणई,से सव्वं जाणई' - जो एक को जानता है वह सबको जानता है। जिसने एक को, अपने-आप को न जाना उसने सारी दुनिया को जान भी लिया तो क्या जाना? माना कि आपने दुनिया के बारे में ढेरों जानकारियाँ इकट्ठी कर ली लेकिन जब यह चोला बदल जाएगा, तो सारी जानकारियाँ निरर्थक हो जाएँगी। देह कहीं और गिर जाएगी, चेतना अपना बसेरा कहीं और कर लेगी, तब उन जानकारियों का क्या होगा। पुद्गल, जड़ पदार्थों के प्रति भाव-राग को खोने का प्रयास कीजिए। ये जितना खोएँगे चेतना स्वयं में आएगी। प्रभु का वचन सार्थक होगा यदि अपने भीतर के शून्यत्व को पहचानने की कोशिश करो। जब तक भीतर का मौन उपलब्ध नहीं होगा तब तक साधना के मार्ग पर सही कदम नहीं बढ़ा पाओगे। साधना के पथ पर फिर से कदम बढ़ाइए, अपने को पहले बिल्कुल खाली बनाइए। कितने भरे हैं अन्दर कुछ न समाता, अद्भुत कुछ घटने वाला घटने न पाता, शून्य करने का कुछ-कुछ श्रम तो उठाइए। कूप ऊपर का पानी लेना चाहता, अन्तर के झरनों से वह खुद भर जाता, व्यर्थ के विकल्पों में गोते न खाइए। शक्कर भरी हो चाहे धूल भरी हो, सोने की सांकल हो या लोहा जड़ी हो, शुभाशुभ दोनों त्यागो, शुद्ध बन जाइए। भीतर के शून्य से, मौन से साधना आगे बढ़े, फिर देखें अस्तित्व कैसा अमृत बरसाता है हमारे तन-मन पर, प्राण-महाप्राण पर, चैतन्य-जगत् पर। अमृत प्रेम, नमस्कार शुभाशीष! मस्त रहें, व्यस्त रहें व ध्यानस्त रहें। 126 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003872
Book TitleDhyan Yog Vidhi aur Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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