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________________ तत्त्व ही आसक्ति है। आसक्तियाँ रखकर व्यक्ति ध्यान की गहराई में नहीं उतर पाएगा। ध्यान करने बैठे, एक मच्छर ने काटा, ध्यान भंग हो गया क्योंकि देह की आसक्ति जुड़ी है। ध्यान बार-बार भंग होता रहता है क्योंकि आसक्ति लौट-लौटकर जुड़ती रहती है। अनासक्त-योग जीवन में आत्मसात् करना होगा। जहाँ तक संभव हो, अपने संबंधों को धीरे-धीरे हल्का करने का, समेटने का प्रयास करो। धीरे-धीरे अन्तर में मौन घटित हो जाने दो। __ हमारे आस-पास अमृत बरसाने वाले तो बहुत से गुरु हैं लेकिन सबसे पहले अपने भीतर के विष को तो बाहर निकालो। अमृत की बूंद तो कहीं न कहीं से टपक ही पडेगी लेकिन हमारे भीतर का जो पात्र विष से सना हआ है वह अमत को भी ज़हर में बदल देगा। जब तक यह पात्र साफ नहीं होगा व्यक्ति अपनी चेतना को उपलब्ध नहीं हो पाएगा। भीतर के विष को बाहर उलीचो। मनुष्य जन्म-जन्म से विषपायी रहा है और शायद आत्म-चिंतन की वेला अब आई है। माना कि ध्यानशिविर में आपने अमृत को पाया है लेकिन बाहर जाकर जहर पीने की कोशिश मत करना। जब-जब भी बाहर ज़हरीला वातावरण उपस्थित हो भीतर यह संकल्प दोहराना कि मैं ज़हर पीने के लिए नहीं, अमृत-पान के लिए धरती पर आया हूँ। जब क्रोध की तरंगें पैदा हों, कषाय का वातावरण उपस्थित हो, मान-माया, लोभ की वेला आए, अहंकार किसी से टकराए तब हर उस स्थिति के पीछे अपने संकल्प को दृढ़ करना कि मैं यह सब करने के लिए नहीं, स्वयं को पाने के लिए मनुष्य बना हूँ। ज़हर उलीचना है, अमृत उपलब्ध करना है। हम बाहर जाएँ, औरों से व्यवहार करें, तो उस पर ध्यान की मुहर होनी चाहिये। ___ ध्यान की उपलब्धि यही है कि भीतर का कचरा, भीतर का ज़हर साफ हो जाए। अमृत की दो बूंदें भी ज़हर में मिलकर ज़हर बन जाती हैं । गुरु-कृपा से, परमात्मकृपा से दो बूंद अमृत पा जाओ तो उसे सहेजकर रखना ताकि ज़हर में न मिल पाए। __परमात्मा की कृपा से बहुत मिला है फिर किस आसक्ति में जी रहे हो। कभी यह न सोचो कि कम मिला है। हमारी जितनी योग्यता थी, जितना पात्र था उससे कहीं अधिक मिला है। जो यह सोचता है कि मुझे जो मिला है मेरी योग्यताओं से अधिक है। मेरी पात्रता से अधिक है उस व्यक्ति के जीवन में सुख और दुःख की घटनाएँ समतापूर्वक घटेंगी। वह जानेगा कि गाली भी मिली तो परमात्मा का प्रसाद है और मुस्कान मिली तो वह भी परमात्मा का प्रसाद। लोग मिठाई तो प्रसाद मानकर खा लेते हैं और गाली हजम नहीं कर पाते । गाली को भी परमात्मा का प्रसाद मानो। जब परमात्मा ने शरीर दिया तो उसे कभी धन्यवाद न दिया। उसने तुम्हारे शरीर में एक 124 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003872
Book TitleDhyan Yog Vidhi aur Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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