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________________ सिद्धत्व की आभा है, साधना की आभा है, ज्योतिर्मयता छिपी हुई है, यहाँ कई साधकों ने इस शिविर में स्वयं की ज्योतिर्मयता को उपलब्ध किया है। गुरु का कार्य भीतर छिपी हुई ज्योति को दिखाना है, शेष ज्योतिर्मयता तो आप स्वयं ही उपलब्ध करते हैं। गुरु कभी प्रकाश नहीं देता, केवल ज्योति का अहसास कराता है। इसलिए जितना धन्यवाद आपके गुरु को है उससे भी अधिक धन्यवाद आपकी चेतना को है, जिसके भीतर यहाँ (माउण्ट आबू) आने के भाव जगे थे और स्वयं में डूबने, रमने और जीने की तरंग उठी थी। __ किसने क्या पाया, वह स्वयं जानता है और गुड़ के स्वाद को गूंगा अभिव्यक्त करे, यह संभव नहीं है। आनन्द वह चीज़ है जिसे व्यक्त नहीं किया जा सकता। सुख-दुःख की अभिव्यक्ति हो सकती है, पर स्वयं में लीन होने पर भीतर की चेतना में जो आनन्द की बूंदें बरसती हैं, आनन्द की फुहारें आती हैं, ऊषा की किरणें आती हैं उस आनन्द को व्यक्ति स्वयं ही पहचान पाता है। संसार कभी आनन्द नहीं दे सकता। आप न जाने कितने वर्षों से दुनिया में जी रहे हैं। कभी करोड़पति बने, कभी रोडपति बने लेकिन दोनों घटनाओं ने जीवन में न आनन्द दिया और न आनन्द छीना। क्योंकि इनका आनन्द से कोई सरोकार ही नहीं था। जीवन में कभी सुख की वेला आई, कभी दुःख की घड़ियाँ आईं लेकिन दोनों ही बाहर से आयी थीं। करोड़पति और रोडपति भी बाहर से ही बने थे। संसार के मायाजाल में रचा-बसा व्यक्ति कभी सुखी तो कभी दुःखी होता है। यह सुख और दुःख तो क्षण-क्षण परिवर्तनशील है। पानी के बुलबुले के समान जीवन में सुख-दुःख के बुलबुले कब उठेंगे, कब दब जाएँगे पता नहीं है। सुख-दुःख बाहर के निमित्त से पैदा होते हैं लेकिन जो व्यक्ति भीतर को उपलब्ध हो रहा है, वह सुख-दुःख से भी उपरत हो रहा है। हमारी यात्रा अशुभ थी; शुभ की ओर चली। प्रसन्नता की बात है। आज हमने शुद्धत्व को उपलब्ध किया है। पाप हो या पुण्य, शुभ हो या अशुभ, बेड़ी चाहे लोहे की हो या सोने की, बेड़ी आखिर बेड़ी है, बंधन आखिर बंधन है। जितने भी मार्ग हैं सभी मार्ग किसी न किसी बंधन से, किसी न किसी जंजीर से जुड़े हैं, जो मनुष्य को यदा-कदा बंधन में डालते रहते हैं। बंधन सोने का हो या लोहे का, बंधन तो बंधन है। बंधन से मुक्त होने का एकमात्र मार्ग ध्यान है। संसार के धर्मों में विविधताएँ हो सकती हैं, अलग-अलग मार्ग हो सकते हैं, लेकिन सारे धर्मों के मार्ग में एक मार्ग एकदम से स्वीकार किया गया है, वह है 'ध्यान'। ध्यान के मार्ग को शायद ही किसी धर्म ने अस्वीकार किया 120/ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003872
Book TitleDhyan Yog Vidhi aur Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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