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________________ तब भी संसार तुम्हारे साथ होगा और अप्रमत्त दशा में अगर बाजार में भी पहुँच गये तो वहाँ परमात्मा तुम्हारे साथ होगा। एक प्रमादी कुछ न करते हुए भी हिंसक हो जाता है और एक जागरूक व्यक्ति परिस्थितिवश कुछ करते हुए भी अहिंसक बना रहता है। तुम्हारी गमन-क्रिया में चींटी मरी या नहीं, यह बात गौण है। खास बात यह है कि गमन-क्रिया हमने कितने होश में की और कितनी बेहोशी में। महावीर जिसे प्रमाद कहते हैं, उसका अर्थ है, सोए-सोए जीना, बेहोशी में जीना, अयतना से जीना। अप्रमाद का अर्थ होता है - जगे-जगे जीना, होशपूर्वक जीना, विवेकपूर्वक जीना। एक प्रमादी जिस क्रिया को करते हुए बंधन में बँधता है वहीं एक अप्रमादी उसी क्रिया को करते हुए बन्धनमुक्त होता है। ___ अप्रमाद का संबंध मात्र साधना, धर्म या अध्यात्म से ही नहीं है। जीवन की प्रत्येक दहलीज पर जाग्रति का दीप टिमटिमाना चाहिए ताकि इस पार भी प्रकाश हो और उस पार भी। धर्म का सम्बन्ध सिर्फ हमारे उन अनुष्ठानों के साथ नहीं है, जो हम कभी पूजा-पाठ के रूप में, सामायिक-प्रतिक्रमण के रूप में, यज्ञ-हवन के रूप में करते हैं । यह तो धर्म रूप है। धर्म तो जीवन के कदम-कदम पर साथ होना चाहिए। ऐसा नहीं है कि जब तुम उपाश्रय में सामायिक करो, तब स्थान को चरवले से प्रमार्जित कर के बैठो। धर्म जीवंत वहाँ हाता है, जब व्यक्ति दुकान में बैठते समय भी इस बात का विवेक रखता है कि गद्दी के नीचे कोई चींटी तो नहीं है। आज हम जो धर्म कर रहे हैं, वह सब एक बँधी-बँधाई लीक है। जब हम महाराज के सामने प्रवचन सुनने बैठते हैं, तब तो मुँहपत्ति का विवेक दिखाते हैं और जब दुकान में ग्राहक से बात करते हैं, तब लड़ाई-झगड़े कर बैठते हैं, गाली-गलोच करते हैं, उस वक्त हमारा यह विवेक कहाँ चला जाता है ! हमने धर्म को भी एक व्यवस्थित और सभ्य मज़ाक बना दिया है। जब तुम सामायिक करने से पहल मुँहपत्ति का पडिलेहन करते हो, तब तो तीन दफ़ा गुरु से आज्ञा माँगते हो पर जब दुकान में मिलावट करते हो, तब किससे आज्ञा माँगते हो। सामायिक एक शुभकृत्य है । इसके लिए तो परमात्मा ने सदा के लिए आदेश दिया है। अगर आदेश माँगना ही है तो उन कृत्यों के लिए आदेश माँगो, जो तुम्हारे जीवन को गर्त में डाल रहे हैं । शायद तब गुरु के वचन तुम्हारे जीवन का रूपांतरण कर दें। आज आवश्यकता है धार्मिक कृत्यों में भी विवेक के प्राण फूंकने की। अन्यथा ये सब हमारी बँधी-बँधाई परम्पराएँ हैं, मात्र नियम-बद्ध किसी प्रतिज्ञा का पालन है। अब इसे धर्म के साथ मज़ाक नहीं कहोगे, तो क्या कहोगे कि दिन भर तो क्रोध करते हो, एक दूजे की निंदा करते हो, छींटा-कसी करते हो और रात को सोते वक्त 108 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003872
Book TitleDhyan Yog Vidhi aur Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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