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________________ 80 अन्तर के पट खोल वह रीता ही मरेगा। अतीत 'था', भविष्य होगा। जो हो चुका, वह अभी नहीं है, और जो होगा, वह भी अभी नहीं है, और लोग पिस रहे हैं बीते-अनबीते के दो पाटों के बीच में। अतीत की स्मृति सताए जा रही है, तो भविष्य की वासना/कल्पना आकुलव्याकुल कर रही है। मनुष्य अपने ही हाथों से अपने अधिकारों का अतिक्रमण कर रहा है। अतीत भी सपना है और भविष्य भी सपना है। एक वह सपना है, जिसे कभी देखा और दूसरा वह सपना है, जो अभी तक आया नहीं है। जो इन दोनों स्थितियों से आँखें हटा लेता है, वह त्रेता-पुरुष है। यह जागरण है। जागरण का आध्यात्मिक नाम संन्यास है, मुनित्व का विनियोजन है। पर मनुष्य है ऐसा, जो नकली स्वर्ण-मृग के पीछे जीवन की सच्चाई को खो रहा है। मृग सूर्य-किरण को जल का स्रोत समझकर दौड़े तो बात समझ में आती है। मृग बेचारा अबोध प्राणी है, किंतु मृग से भी ज़्यादा अबोध तो हम दोपाया मनुष्य हैं, जो उसे स्वर्ण-मृग मानकर उसके पीछे अपना तीर-कमान लेकर निकल पड़े हैं। जो है ही नहीं, उसके पीछे क्या लगना ! जो है, उसके लिए अपने पुरुषार्थ का उपयोग करें। जो है, वह है' में है, स्वयं में है। कस्तूरी कुंडल बसै - स्वयं के ही नाभि-केंद्र में समाई हई है वह कस्तूरी, जिसके चलते सुगंध तुम्हें निमंत्रण दे रही है। मनुष्य है ऐसा, जो अपने व्यक्तित्व का उपयोग ‘अभी' के लिए नहीं कर रहा है। वह अपनी इच्छा-शक्ति को बचाए रखना चाहता है - कभी और के लिए, किसी और के लिए, कहीं और के लिए - एक सर्द मौसम और आगे आने वाला है। आग अपने सीने में कुछ दबी भी रहने दो॥ शक्ति उद्यम के लिए है। ‘उद्यमो भैरव:' उद्यम ही भैरव है। भैरव प्रतीक है ब्रह्म का, पुरुषार्थ का, चैतन्य-क्रांति का। भैरव देवता माने जाते हैं। लोग संकट की घड़ी में, असफल हो जाने पर भैरव की पूजा-अर्चना करते हैं। रण-मैदान में जाने से पहले भी भैरव को मनाते हैं। क्या आप जानते हैं कि भैरव क्या है ? हमारा उद्यम ही हमारा भैरव है। हमारा विश्वास और पुरुषार्थ ही हमारे जीवन का भैरव है। पतंजलि ने बड़ा अच्छा शब्द दिया 'उद्यमो भैरव:'- उद्यम ही भैरव है। उद्यम ऊँचा यम है। उद्यम हो मूर्छा के कारागृह से बाहर निकलने का। उद्यम हो श्रद्धा, सामर्थ्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा का। उद्यम जितना तीव्रतम/पवित्रतम होगा, सिद्धि उतनी ही करीब होती जाएगी। उद्यम कोई चुल्लू भर पानी में डूबना नहीं है। समग्रता से किया जाने वाला आध्यात्मिक प्रयास ही उद्यम है। वेग जितना तीव्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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