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अन्तर के पट खोल
टूटी नहीं थी । मूर्च्छा तो आज भी है। मूर्च्छा टूटना ही चैतन्य - जगत् के द्वारों का उद्घाटन है। कलि और कृत - ये वास्तव में समय के चरण नहीं है। ये चरण तो चेतना के हैं।
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जिन्होंने अपने समय को त्रेता और सत कहा, उन्होंने काई गलत नहीं कहा क्योंकि उनके लिए तो वे स्वयं कृत थे, तो उनका युग उनके लिए कृत-युग ही होगा। यह आधार तो जीवन - दृष्टि के मूल्यांकन पर है। यह देश भी कभी सोने की चिड़िया, रत्नों की खान कहलाया करता था । पता नहीं, वह सोने की चिड़िया कब रहा ! जिस देश में नरमेध यज्ञ होते थे, स्त्रियों को बाजार की चौखट पर सरे आम जाता था, गरीबों को गुलाम बने रहने पर मजबूर होना पड़ता था, वहाँ स्वर्णयुग आया ही कब ? युग का आदर्श तो अब आएगा । देख नहीं रहे हो युद्ध के खिलाफ बोलते लोगों को, मृत्यु-दंड के विरोध में उभरते स्वरों को। अब तो गुलामों को भी स्वतंत्रता के दिन देखने को मिल रहे हैं। नारी - कल्याण वर्ष मनाए जा रहे हैं। कैदियों के प्रति भी मानवाधिकारों की रक्षा की बात उठ रही है । पर तब ? जहाँ दरिद्रता व गुलामी चरम सीमा पर हो, नारी को जुए में चढ़ा दिया जाता हो, सरे बाजार खरीद-फरोख्त होती हो, वहाँ अपने आपको सोने की चिड़िया कहना मात्र अपने खून रिसते घाव को माटी से ढकना है
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अच्छे-बुरे, सोए-जागे लोग तो समय के हर धरातल पर होते रहते हैं । यदि तुम भी अपनी नींद को झाड़ दो, आँखें खोल लो, तो तुम भी कलि से द्वापर बन जाओगे। उठ बैठो तो त्रेता, और चल पड़ो तो स्वर्ण, कृत । अमृत - पुरुष वह है, जो पहुँच चुका है।
कहते हैं : श्रीकृष्ण ने कलि-दमन किया । कलि वास्तव में प्रतीक है प्रगाढ़ निद्रा का, मूर्च्छा का। पता नहीं कितने लोग कलि की पूँछ की चपेट में आ जाते हैं। वे लोग अमृत-पुरुष कहलाते हैं, जो उसी की पूँछ से उसके नथुनों को बींध डालते हैं। जो कलि की पूँछ के नीचे दबे पड़े हैं, वे मूर्च्छा में अधमरे पड़े हैं और वे दबे पड़े Maa art से । जो मूर्च्छा से जगकर चैतन्य - जीवन की ओर चल पड़े हैं, वे कलि के शीष पर हैं, कलि उनके पाँव तले। ऐसे पुरुष सतयुग में जीते हैं और महामानव की संज्ञा पाकर अमृत - पुरुष हो जाते हैं। जैसे कृष्ण कलि को बींधकर उसके सिर पर नृत्य करते हैं, ऐसा ही जीवन में आनंदोत्सव होता है। जो चरैवेतिचरैवेति को तहेदिल से स्वीकार कर लेता है, वही स्वर्णिम सवेरे का साक्षात्कार करता है। अपनी खोज जारी रखो। पहाड़ों के पार भी पहाड़ संभावित हैं। मंजिल गंतव्यपूर्ण यात्रा है। आखिर उस बिंदु तक पहुँच जाओगे, जो जीवन का मूल संचार
केंद्र है।
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