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________________ 74 अन्तर के पट खोल बना लेता है, जिसे हम कुंडलिनी का ऊर्ध्वारोहण कहते हैं। वह दूसरे अर्थों में इसी शक्ति की शिखर-यात्रा है। साधना के ऊँचे शिखरों को छूने के लिए हमें सामर्थ्य तो जुटाना होगा। असमर्थ व्यक्ति जीवन के कारवाँ को मंजिल तक नहीं ले जा सकता। यदि सीढ़ियों को पार करना है, तो पाँवों की मजबूती तो चाहिए ही। बिना सामर्थ्य के तो आदमी को सीढ़ी ही मंजिल लगती है। शरीर भी स्वस्थ हो और मन भी, तभी तो सफर आसानी से होगा। संघर्ष तो यहाँ भी करना होगा। नदिया के बहते पानी के साथ बहना हो, तो बात अलग है। यहाँ बहना नहीं है। यहाँ तो तैरना है। किश्ती को किनारे पर नहीं रखना है। इसे तो भँवर के खतरों से गुजारना है। कहीं ऐसा न हो कि कर्त्तव्य-पथ पर कदम उठाने के बाद हम फिसल पड़ें। कहीं ऐसा न हो कि शरीर की कामाग्नि हमें झुलसा दे, मन की तृष्णा हमें तोड़ दे। __ साधना के मार्ग में महावीर ने शरीर की स्वस्थता, मन की अडिगता और वातावरण की अनुकूलता को अनिवार्य माना है। पतंजलि कहते हैं - हर स्त्री-पुरुष वीर्यवान हों। आत्मवान् और पुरुषार्थशील हों। हम अपने विश्वास, आत्मविश्वास के स्वामी हों। साधना-पथ का तीसरा चरण, जो इसमें तुम्हारा सहयोगी बनेगा, वह है स्मृति। यह महत्त्वपूर्ण चरण है। यदि स्मृति है, तो श्रद्धा अपने आप है। समाधि भी परछाईं की तरह साथ-साथ आ जाएगी। लोग जो मालाएँ गिनते हैं, मंत्रों का जाप करते हैं, वह वास्तव में स्मृति को ही परिपक्व और सशक्त बनाने के लिए है। स्मृति की सघनता के लिए ही मंत्रों का विधान हआ। संसार के सपनों को ओछा करने के लिए मंत्र-योग महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। यदि हम हरे-हरे, राम-राम या अर्हम्बुद्धम् का निर्बाध सतत स्मरण करते चले जाएँ, तो संसार से अनिवार्यत: अनासक्त होते जाएँगे। फिर भीतर में स्वप्न नहीं, वरन् जागरण होगा। तुलसी और सूर ने इसीलिए तो नाम-स्मरण पर जोर दिया। यदि श्वासोश्वास के साथ स्मृति जुड़ जाए, तो रात में नींद में भी जप-अजपा अनायास चालू रहेगा। यदि कोई दूसरा हमें देखेगा, तो बड़ा अचंभित रह जाएगा। यानी हम नींद में रहेंगे, लेकिन जप जागा हुआ रहेगा। स्मृति तो धुन है। परीक्षा के दिनों में बच्चों को कैसी धुन सवार होती है। खाने को उसने खा भी लिया, सोने को वह सो भी गया पर, उसके ध्यान की समग्रता तो केवल पढ़ाई से ही जुड़ी रहती है। नतीजतन वह खाते वक्त भी पढ़ रहा है और सोते वक्त भी। ऐसी ही स्मृति जब परमात्मा की होगी, तो ज्ञानी कहते हैं कि तुम परमात्मा को पाने में बहुत जल्दी सफल हो जाओगे। परमात्मा की स्मृति से भरा हुआ हृदय ही तो प्रार्थना है। परमात्मा की पूजा से मतलब है उसके अहोभाव से सराबोर होना। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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