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अन्तर के पट खोल
आँखें दिखाते हुए कुछ कठोर भाषा में कहा, “मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूँ। मैंने प्रव्रज्या ले ली और तुम अभी भी संसार में हो।' नंद घबराया। वह कुछ न बोल पाया। वह छटपटा रहा था, किंतु उसका मुंडन कर दिया गया, भिक्षु के काषाय-वस्त्र पहना दिए गए।
नंद बुद्ध के विहार-क्षेत्र में रहा, उनके साथ रहा, पर उसे शांति न मिली। वह विलाप करने लगा - जो अपनी रोती हुई पत्नी को छोड़कर भी तप कर सकता है, वह कठोर है। मैं तो एक ओर पत्नी का राग और दूसरी और बुद्ध की लज्जा- दो पाटों के बीच में पिसा जा रहा हूँ। चलते समय मेरी पत्नी ने आँखों में आँसू भरकर कहा था- आलेपन सूखने से पहले वापस चले आना। मैं पत्नी के उन भाव-विह्वल वचनों को आज भी नहीं भूल पाया।
नंद ने भिक्षुओं को देखकर कहा- ये जो चट्टान पर आसन जमाए हुए भिक्षु ध्यान में बैठे हैं, क्या इनके मन में काम नहीं है ? काम तो नैसर्गिक है। जब देवता
और ऋषि-मुनि भी काम के बाण से घायल हुए हैं, फिर मैं तो सामान्य इनसान हूँ। मैं घर लौट जाऊँगा। जिसका मन चंचल है, वह सिद्ध कैसे बन सकता है ? उसमें ज्योति कहाँ!
___ यद्यपि नंद ने आखिर भेद-विज्ञान आत्मसात् कर लिया था, सिद्धार्थ की भी इसमें भूमिका रही होगी, किंतु जीवन का मध्याह्नवह जिस ढंग से घुट-घुटकर जिया, उसे न तो प्रव्रज्या कहा जा सकता है और न संन्यास। संन्यास के बाद बोधरूपांतरण का क्रम नहीं है, वरन् संन्यास हो बोध-पूर्वक। आँखों की शर्म से किसी को संन्यासी बने रहने के लिए मजबूर रखना बोधपूर्वक पहल नहीं कही जा सकती।
लोग तो जाके समुंदर को जला आए हैं।
मैं जिसे फूंककर आया, वो मेरा घर निकला। कोई कुछ भी करे, पर तुम अपने कदम तभी बढ़ाना जब संन्यास हृदय की धड़कन बन जाए, जीना भी संन्यास बन जाए। संन्यास कोई स्वयं को कष्ट देना नहीं है। संन्यास तो स्वयं का बोध पाना है। आत्म-बोध से बढ़कर कोई तप नहीं है। आत्म-बोध से बढ़कर कोई त्याग नहीं है। आत्म-बोध से बढ़कर कोई धर्म और दर्शन नहीं है। आत्म-बोध ही धुरी है अध्यात्म की। बोध ही काफी है भेद-विज्ञान का। जड़ तो जड़ बना रहेगा, चेतन चेतन में समा गया – यही उसकी पुनर्वापसी है और यही उसका प्रतिक्रमण।
सरल शब्दों में कहँ तो भेद-विज्ञान ही वैराग्य की आत्मा है। वीतरागता के फूल इसी से खिलते हैं। अध्यात्म का अमृत इसी से आत्मसात् होता है। कोई अगर मुझसे पूछे कि मोक्ष और निर्वाण का एकमात्र मूल मार्ग क्या है, तो मेरा जवाब होगा
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