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भेद - विज्ञान : साधक की अंतर्दृष्टि
ज्ञान उसी का है, जो उसे जिए । सत्य उसी का है, जो उसे आत्मसात् करे ।
जीवन
वन - गंगा की पहली धारा बड़ी बारीक है । यदि हम जीवन की यात्रा को गहराई पूर्वक निहारें, तो जीवन का बोध आत्मसात् हो सकता है। अध्यात्म की प्यास जीवन के बारीक सर्वेक्षण से ही जगती है। प्यास की लौ जितनी तीव्र होगी, अतिक्रमण प्रतिक्रमण में रूपांतरित होता जाएगा।
जीवन के घेरे में दो दिशाएँ नजर - मुहैया होती हैं । उनमें एक तो है आक्रमण और दूसरी दिशा है प्रतिक्रमण । दोनों एक-दूसरे के विपरीत हैं - पूर्व-पश्चिम की तरह । अतिक्रमण की भाषा आक्रमण के रास्ते से ही होती है । आक्रमण पौरुष का संघर्ष है। अतिक्रमण आक्रमण की खतरनाक व्यूह-रचना है । हमारी जीवंतता और समझ, मर्यादा और औचित्य सबको लाँघ जाता है अतिक्रमण । अतिक्रमण बलात् चेष्टा है, ज्यादती है।
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प्रतिक्रमण जोश की भाषा नहीं है । यह होश की अभिव्यक्ति है । इसमें जोरजबरन कुछ भी नहीं होता। इसमें सिर्फ पुनर्वापसी होती है । परिधि से केंद्र की ओर, संसार से चेतना की ओर लौट आना ही प्रतिक्रमण है ।
प्रतिक्रमण चित्त के बिखराव पर अंकुश है। यह अपने घर में लौट आना है। यह चैतन्य-बोध है, संसार से पुनर्वापसी है। जीवन में उलझे मकड़ी - जाल से मुक्त होने का आधार है - प्रतिक्रमण | चित्त वृत्तियों का जहाँ-जहाँ से नाता जुड़ा है, उसे बिसराकर खुद में अँगड़ाई भरना है। पंछी का नीड़ की ओर लौट आना ही तो प्रतिक्रमण की पगडंडी से घर में, चेतना में वापसी है।
स्वयं के जीवन को शांत, सरल, साक्षी चित्त से निहारना ध्यान की
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