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अन्तर के पट खोल
वह गतिशील होता है। यदि गाड़ी को धक्का लगाना बंद कर दो, तो वह अपने-आप ठप्प हो जाएगी। गाड़ी को रोकना भी चाहते हो और धक्का भी लगातार अविराम मारे जा रहे हो, तो गाड़ी भला रुकेगी कैसे ? घड़ी में जब तक चाबी भरते रहोगे, वह टिक-टिक करती रहेगी। यदि यह टिक-टिक तुम्हारा जीना, सोना हराम कर रही है, तो चाबी भरनी बंद करो । उसे ढीली छोड़ो । द्रष्टा-भाव का सूर्योदय होने दें अस्तित्व के आँगन में। कार का एक्सीलेटर और ब्रेक - दोनों एक साथ दबाना तो मूर्खता है । आमतौर पर हर आदमी की यह शिकायत रहती है कि 'मन बड़ा दौड़ता है' । मन तो दौड़ेगा ही, जब तक दौड़ का साथ निभाओगे। दो पाँवों में से किसी एक पाँव को तो रोको, दूसरा स्वयमेव रुक जाएगा। गाड़ी का कोई सा एक चक्का खोल दो, गाड़ी खुद-ब-खुद रुक जाएगी, दूसरे चक्के को बिना खोले ही। हम तो अपनी स्मृति, सुरति, सजगता, संलीनता अंतर्घर की ओर लगाएँ। बड़ा प्यारा पद है.
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सुमिरन सुरत लगाइकै, मुख ते कछू न बोल । बाहर के पट देइकै, अंतर के पट खोल |
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लोग पट खोलते हैं घूँघट के । ज्ञानीजन कहते हैं - अंतर के पट खोल । बाहर द्वार - दरवाजे हैं, भीतर जीवन के रहस्यों के पर्दे हैं । हम उन पर्दों को खोलें । 'सुमिरन सुरत लगाइकै' – अपनी स्मृति को आत्म-तत्त्व के साथ, परमात्म-तत्त्व के साथ लगाएँ। बाहर का बड़बोलापन बंद करें, भीतर के स्वर सुनें । मन की शांति ही जीवन - जगत् के अंतर्रहस्यों को पहचानने की कला है।
लोग बैठते हैं पूजा के वक्त लाउडस्पीकर लगाकर । शायद यही सोचकर कि भगवान् तक उनकी प्रार्थना की आवाज पहुँचे । भगवान् यदि आकाश में, स्वर्ग में या स्वर्ग से ऊपर रहते हैं, तब भी आवाज नहीं जा सकती, चाहे लाउडस्पीकर लगा लो और यदि परमात्मा कण-कण में हैं, स्वयं के पास हैं तो वह गूँगे की भी प्रार्थना सुन लेंगे ।
हरिद्वार में मैं एक आश्रम में ठहरा था । सवेरे पाँच बजे वहाँ के पुजारी ने मंदिर में बैठकर लाउडस्पीकर में भगवान् की प्रार्थना के स्तोत्र बोलने शुरू किए। वैसे भी संत की आवाज जोर की थी और उसमें भी लाउडस्पीकर तेज । मैंने कहा, मंदिर में और कोई नहीं है, आप मन में ही स्तोत्र - स्मरण कर लें। कहने लगे, स्तोत्र तो जोर से ही बोलने चाहिएँ, ताकि ... । मैंने कहा, ताकि भगवान् सुन सकें । कहने लगे, 'नहीं, लोग सुन सकें ।'
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पुजारी भगवान् के लिए नहीं, लोगों के लिए स्तोत्र पाठ कर रहा है। लोग जान लें कि पुजारी ने स्तोत्र पाठ कर लिया है, ताकि पुजारी की दान-दक्षिणा में सुविधा रहे ।
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