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________________ अन्तर के पट खोल हर हालत में शांत रहूँगा। धीरज से बोलूँगा। धैर्य, शांति और प्रसन्नता को अपने तन-मन में बरकरार रखूगा। धीरे-धीरे आप पाएँगे कि भाग्य और नियति के उलटे-सीधे खेल होने के बावजूद आप शांत हो, खुश हो, मस्त हो। ध्यानयोग की यह अनिवार्य भूमिका भी है और प्रेरणा भी। आम तौर पर हमारी जिंदगी बोलने और सोचने में घिसती है। आदमी जितना बोलता है, उससे अधिक वह सोचता है। जितना सोचता है, उसका दसवाँ हिस्सा भी वह बोल नहीं पाता। अभिव्यक्ति अनुचितंन से बढ़कर नहीं हो सकती। पर हाँ, जिनका मन मितभाषी हो जाता है, वे उतना ही बोलते हैं, जितना वे सोचते हैं। अंतर्दृष्टि का द्वारोद्घाटन होने के बाद भी मन का उपयोग और वाणी का व्यवहार तो होता है, पर उतना ही जितना आवश्यक है। तीर्थंकर, बुद्ध या ब्रह्मर्षि लोग न बोलते हों, ऐसी बात नहीं है। मन और होंठ, कंठ, तालु का उपयोग तो वे भी करते हैं, पर हमारी तरह नहीं, जो बोलते तो हैं पाँच मिनट और सोचते रहते हैं दिन भर। हम किसी से मिले, बात की; वह चला गया, पर्दा गिर जाना चाहिए; परंतु हम उसके चले जाने के बावजूद उसके बारे में सोचते रहते हैं। सोच की यह प्रक्रिया ही तो मनुष्य के लिए तनाव की आधारशिला है। आत्मजागृत पुरुष तो दर्पण की तरह होते हैं। कोई आया, दर्पण में उसका प्रतिबिंब बना। वह चला गया, बात खत्म हुई। दर्पण चित्रांकन नहीं करता। वह कैमरा नहीं है। खुद को उसमें देखना चाहोगे, तो वह दिखाएगा। हमारी मुखाकृति हटी कि वह साफ-सुथरा, स्वच्छ, निर्मल, प्रतिबिंब-मुक्त।। जीवन-विज्ञान का तीसरा तल है पश्यंति-दर्शन का, देखने का। मन के ऊहापोह भरे पहलू ठंडे हो जाने पर एक ऐसी क्षमता मुखर/प्रखर होती है, जिसे पश्यंति कहा गया है। यह अध्यात्म-क्रांति की बुनियाद है। पश्यंति में जो देखा जाता है, वह बाहरी आँखों से नहीं, भीतरी आँखों से, अतींद्रिय बोध-दृष्टि से देखा जाता है। अंतर्जगत् का दर्शन अतींद्रिय होता है। इसीलिए ऋषि-मुनि कहते हैं - हमने देखा। महावीर कहते हैं - मैंने देखा, मैंने जाना। उनके तो साधना-सूत्रों में भी सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान प्राथमिक हैं। बुद्ध के शब्दों में – पिटक-ज्ञान मैंने बोधि-क्षणों में देखा। मूसा को भी 'टैन कमांडमेंट्स' दिखाई पड़े, सुनाई पड़े। देखने और सुनने में सिर्फ तीन इंच का फर्क नहीं है, फर्क है बोध की प्रखरता का। दर्शन मौलिक ज्ञान का प्रकाश-मार्ग है। श्रवण के बाद दर्शन की भूमिका है। श्रवण की कसौटी दर्शन ही है। ‘कानों सुनी सो झूठी, आँखों देखी सो सच्ची' । सुनने से तो बस इशारा मिलता है। पहले सुनो, सुनने से पता चलेगा कि सच क्या है, झूठ क्या है। फिर उसको देखो। आँखों से देख लोगे, तो वह श्रुति नहीं, वह वेद हो जाएगा, अनुभूति बन जाएगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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