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________________ 25 बोध : वृत्ति और प्रवृत्ति का यदि जीवन की आध्यात्मिक मंजिलों को पाना है, तो आत्मबोध के करीब आना होगा और आत्मबोध के लिए चित्त की निर्मलता को साकार करना होगा। हमें चलना चाहिए मन के पार, चित्त के पार। चित्त की गति वृत्ति है और उसकी प्रगति प्रवृत्ति। निवृत्ति वृत्तियों से रहित होना है। वृत्ति से मुक्ति ही व्यक्ति का निर्वाण है। महावीर निवृत्ति का प्रतिपादन करते हैं। शिव इसे तुर्यावस्था' कहते हैं। बुद्ध का शब्द है ‘परावृत्ति' । वृत्ति की उज्ज्वलता ही परावृत्ति है। चेतना के जगत् में ‘परा' परमस्थिति का वाचक है। निवृत्ति और परावृत्ति अपने आखिरी चरण में परम मौन, परम स्वरूप का रूप धर लेती हैं। वास्तव में जहाँ ऐसा महामौन प्रकट होता है, वहीं स्वयं का जगत्' है। __ वृत्तियों की पारदर्शी परतों का बिखर जाना ही समाधि है। संन्यास और समाधि में बुनियादी भेद है। चित्त का सो जाना संन्यास है, किंतु चित्त का शून्य हो जाना समाधि है। ध्यान इस समाधि में प्रवेश करवाता है, इसलिए ध्यान समाधि का प्रवेशद्वार है। परंतु ध्यान की आखिरी मंजिल समाधि ही नहीं है। समाधि तो ध्यान का पहला चमत्कार है, प्रथम आनंद उत्सव है। समाधि वास्तव में तूफान-घिरे सरोवर का निस्तरंग होना है। यह आत्म-जागृति है। जब हमारे भीतर रात-दिन में कभी भी स्वप्न न रहे, विचारों की उठापटक न रहे, भीतर-बाहर निर्मल स्थिति रहे, तो समझें स्वयं को आत्म-जागृत पुरुष। यह दशा समाधि की है, प्रज्ञा-प्रकर्षता की है। यह एक प्रकार की महामृत्यु है। जीवन में नया पुनर्जन्म है। ___ मृत्यु उसी की होती है, जो मरणधर्मा है। शरीर मरणधर्मा है, चित्त मरणधर्मा है। मरने वाले मर गए, यही उनकी समाधि है। समाधि यानी मरणधर्मा ने अपना धर्म पूरा किया। संन्यासी/श्रमण, जीकर भी शरीर की दृष्टि से मृत होता है और मरकर भी अमृत होता है। इसलिए उनके अंत्येष्टि-स्थल को 'समाधि' कहा जाता है। वे मुक्त तो जीते-जी हो जाते हैं, पर शरीर का ऋण चुकाना बाकी होता है। शरीर छूटा और जैसे ज्योति आकाश की ओर उठकर खो जाती है, ऐसे ही अमृत-पुरुष विलीन हो जाते हैं, विराट् हो जाते हैं। जब व्यक्ति शरीर और चित्त दोनों के पार चला जाता है, तो समाधि से उसकी बखूबी मुलाकात होती है। तब अंतर-हृदय में ‘पग धुंघरू बांध मीरा नाची रे', तब हृदय सच्चिदानंद के सौंदर्य से आह्लादित हो जाता है। तब ‘अपूर्वकरण' घटित हो जाता है। मरुस्थल मरूद्यान में बदल जाता है। देहातीत और मन-रहित स्थिति ही समाधि है। जहाँ हमारे ‘आगे' भी कुछ नहीं बचता, ‘पीछे' भी कुछ नहीं रहता, तभी समाधि की संभावना जीवन के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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