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________________ : वृत्ति और प्रवृत्ति का जीवन-भर कोड़ी-कोड़ी जोड़ता रहता है और मूर्च्छित भी जोड़ने का परिग्रह संजोता रहता है, पहल हो अपरिग्रह की, अमूर्च्छा की। पकड़ से मुक्त होने का नाम ही वीतरागता की पहल है। त्याग अच्छा है, किंतु त्याग की स्मृति को संजोना त्याग की अच्छाई से सौ गुना बुरा है। त्याग प्रवृत्ति है, उपभोग भी प्रवृत्ति है, किंतु उसकी पकड़ ही वृत्ति है । भोग न तो अच्छे होते हैं, न बुरे । जैसी दृष्टि और वृत्ति होती है, उसके लिए वे वैसे ही होते हैं। तुम तने और पत्तों की बजाय जड़ की ओर चलो, वृत्ति-मुक्त बनो । जो छूट जाए, वह छूट ही जाएगा। छोड़ने के प्रयास से त्याग की स्मृति रहेगी, मगर जो चीज जी से हट चुकी है, उसका जिक्र भी न आएगा जुबाँ पर । कहते हैं : तांज़न और इकीडो एक बार किसी कीचड़ भरे रोड़ से सफर कर रहे थे। रास्ते में बहुत तेज बारिश हुई थी और सारा रास्ता कीचड़ से लथपथ था। चलते हुए एक मोड़ आया, जहाँ उन्हें एक प्यारी सी लड़की मिली। तांजन को लगा कि यह लड़की कीचड़ के रास्ते में फँस गई है और अपना रास्ता तय नहीं कर पा रही है। तांज़न ने उससे कहा, आ जाओ बेटा । तांज़न ने उसका हाथ पकड़ा और कीचड़ के रास्ते से उसे पार लगा दिया। हालांकि इकीडो उस समय कुछ न बोला, पर जब वे किसी सराय में पहुँचे, तो रात को सोने से पहले इकीडो ने ताज़न से कहा, हम संत हैं और हमें महिलाओं के पास नहीं जाना चाहिए और उसमें भी मुख्य रूप से युवा और उस जैसी प्यारी युवती के पास तो कतई नहीं। यह खतरनाक है। मुझे बताओ, तुमने ऐसा क्यों किया ? ताज़ ने कहा, मैं तो उस लड़की को वहीं छोड़ आया था, क्या तुम उसे यहाँ तक ढोकर लाए हो ? 23 ऐसा होता है; जिसकी दृष्टि देह के स्वरूप पर टिकी रहती है उसके लिए स्त्री और पुरुष के भेद हैं, और जब तक ये भेद हैं, तब तक खतरे भी हैं। जवानी में ही नहीं, बुढ़ापे में भी । पर जिस साधक की नजरें देह से ही ऊपर उठ गई हैं, उसके लिए क्या स्त्री और क्या पुरुष । वह स्त्री को कीचड़ पार नहीं करा रहा, अपितु 'किसी' को पार करा रहा है। 'ओह, तो तुम उस लड़की की बात कर रहे हो ।' तांज़न ने मुस्कुराते हुए कहा, 'मित्र ! यदि स्त्री भी मानें, तो साधक के लिए तो हर स्त्री माँ है । 'मातृवत् परदारेषु' जैसी उक्ति उसके लिए नहीं है। उसके लिए तो ‘मातृवत् सर्वदारेषु' सही है। क्या बुद्ध और तीर्थंकर छाँट-छाँटकर पार लगाते हैं कि यह स्त्री, वह पुरुष ? यदि किसी को पार लगाया जा सकता है, तो लगाओ। स्त्री-पुरुष का भेद तो आम आदमी के लिए है। मुक्त साधक तो इस भेद से मुक्त है। राम ने निष्कासित किया, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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