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________________ अन्तर के पट खोल रहेगा। मानसिक व्यापार ही सुख-संत्रास, हर्ष-घुटन के फायदे-घाटे का सौदा तैयार करता है। वह एक में टिक नहीं पाता। 'तू तो रंडी फिरै बिहंडी' - वेश्या की तरह मन की प्रवृत्ति है। मन का एक में लगना ही उसकी निमग्नता है। एक पति या एक पत्नी में मन का लगना प्रेम है, एक गुरु के प्रति उसका समर्पित होना श्रद्धा है और एक परमात्मा में डूब जाना मोक्ष है। पर मन चंचलता और भटकाव के रास्तों से गुजरता रहता है। मन के चलते मनुष्य जीवनभर मात्र मन का ही अनुगमन करता है, पर एक बात तय है कि मन जीवन का सर्वस्व नहीं है। मन जीवन की समग्रता का एक हिस्सा है। देह और मन - दोनों एक दूसरे से संबद्ध और अन्योन्याश्रित हैं। ___कोई भी व्यक्ति तब तक देह-धर्मों से पूरी तरह उपरत नहीं हो सकता, जब तक कि वह मन के धर्मों से निरपेक्ष न हो जाए। काम को विकार मानकर तजने की बात सदा से कही जाती रही है, पर देह और मन के धर्म जब तक जीवित हैं, तब तक ब्रह्मचर्य की बात भी केवल एक आरोपण भर होगी, आत्मसात् नहीं। ___ ध्यान रखें, देह के धर्म पर अंकुश लगाना थोड़ा आसान है, पर मन के धर्म ! बड़े विचित्र हैं। आम आदमी तो क्या, योगीजनों को भी मुश्किल हैं। मन के धर्मों पर विजय प्राप्त कर लेना ही योग है, मन के धर्मों के आगे परास्त होना ही भोग है। वहीं देह और मन के धर्मों का पुनः-पुनः पोषण करते रहना, उनकी दासता स्वीकार कर बैठना ही रोग है। प्रश्न चाहे रोग का हो या भोग का अथवा योग का, सबके पीछे छिपा है मनुष्य का मन, वृत्ति-संस्कारों से भरा मन, चित्त । इसलिए मात्र प्रवृत्तिशून्य हो जाने से कुछ न होगा, जब तक वृत्तिशून्य न बनोगे। यदि प्रवृत्ति निरुद्ध भी हो गई, तो यह जरूरी नहीं है कि वृत्ति भी समाप्त हो गई। अनेक लोग प्रवृत्तियों की आपाधापी से तंग आकर संन्यास का बाना धारण कर लेते हैं। वे जंगलों और गुफाओं में भी चले जाते हैं। भीड़ से बचकर गुफा में चले गए, परंतु भीड़ छोड़कर भी अपने साथ विचारों में भीड़ को साथ लिए फिर रहे हो। बाजार की भीड़ का क्या ? आँख बंद कर लो, भीड़ में भी एकांत हो गया। गुफा-वास ग्रहण कर लेने मात्र से भला कोई मन की आसक्ति क्षीण थोड़े ही होती है। आसक्ति का त्याग गुफा में जाकर नहीं होता, वरन् पहले आसक्ति से उपरत हुआ जाता है। पश्चात् गुफावास सार्थक होता है, वरना बैठे रहोगे गुफा में और गढ़ते रहोगे संसार का मकड़जाल। मन की उधेड़बुन तो तब शांत होती है, जब पहले वहाँ से अनासक्ति और विरक्ति हो जाए, जहाँ से तुमने अपना कदम बढ़ाया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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