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________________ शांति का मार्ग : वर्तमान की अनुपश्यना 15 का मतलब यह नहीं कि अतीत और भविष्य ढकोसले हैं इसलिए खूब खाओ, पीयो, मौज उड़ाओ। कृपया संयम रखें, अन्यथा मेमना जितना जल्दी मोटा-ताजा होगा, खतरा उतना ही अधिक सिर पर मँडराएगा। साधक के लिए वह मन ही ध्यान, योग और समाधि का द्वार बनता है, जो वर्तमान का अनुपश्यी हो। जिस मन की आपाधापी से हम इतने संत्रस्त हैं, यदि वह वर्तमान का द्रष्टा और वर्तमान के लिए ही सक्रिय हो जाए, तो सत्य और शांति की किसी भी संभावना को आत्मसात् करने के लिए उससे बेहतर और कोई साधन न बनेगा। महावीर द्वारा वर्तमान की अनुप्रेक्षा और बुद्ध द्वारा वर्तमान की विपश्यना उनकी मनोमुक्ति के प्रमुख आधार बने। ____ मन और समय का अतिक्रमण करने के लिए जो हो रहा है, उसको होने देना है। यह भवितव्य है, किंतु जहाँ भवितव्य को कर्त्तव्य मान लिया जाता है, वहाँ वर्तमान भी बंधन का आधार बन जाता है। सत्य और शांति को किसी कत्य या क्रिया से नहीं, वरन् स्वभाव और होने से पाया जाता है। वह है, सिर्फ उसमें होना है। आत्म-स्वीकृति में ही परमात्मा की पदचाप सुनाई दे जाती है। जो है, यदि उसे समग्रता से ढूँढ़ा जाए, तो वह नजर के सामने है - खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तलाश में: मैं तो तेरे पास में। ___ वह वर्तमान में है, वर्तमान में जीना योग का प्रवेश-द्वार है। योग का अनुशासन वर्तमान में जगना है। जागृति सुषुप्ति और स्वप्न से बेहतर स्थिति है। जागरण ही तुर्या-अवस्था के फूल खिलाता है। मन का सोना ही अंतर्हृदय में उतरने का मार्ग खोलता है। मन को जागकर ही देखा-परखा जा सकता है। जो जगा, उसका मन सो गया। मन को विश्राम देकर ही जीवन को नई स्फूर्त ऊर्जा प्रदान की जा सकती है। मन का उपयोग करना चाहिए, पर दिन-रात नहीं, आवश्यकतानुसार । आवश्यकतानुसार उपयोग करो, पुन: विश्राम। मन को विश्राम का, रिलैक्सेशनशिप का गुर आना चाहिए। मन का कैसे उपयोग किया जाए, यदि आदमी को इसकी कला आत्मसात् हो जाए, तो जीवन की समस्त समस्याओं का स्वत: निदान हो जाए। ____ हम मन को इधर-उधर की उठापटक से मुक्त करने के लिए वर्तमान के साक्षी बनें और फिर मन की चंचलता के शांत होने पर अतिमनस् की ओर उठे। मन के भी पार, परा तत्त्व की ओर, चैतन्य की ओर, साइकिक पॉवर की ओर। योग की पहली शर्त मन की अडिगता है। मन का स्थिर और शांतिमय होना योग का अनिवार्य पहलू है। मन की सारी डिगाहट अतीत और भविष्य के इशारे पर है। डिगता-झूलता मन कभी ‘सम्यक् दर्शन' का सूत्रधार नहीं बन सकता। वर्तमान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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