SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कैवल्य के द्वार पर अयोग स्वयं परमात्मा हो जाना है। वह विशुद्ध दशा है। कैवल्य का अर्थ है केवलता । यह वह परिस्थिति है, जहाँ 'मैं' तो छूट ही जाता है, 'हूँ' भी पीछे रह जाता है। यहाँ रहती है, अस्तित्व की विशुद्धता, खुद की खालिशता । har स्थिति के लिए एक और प्रचलित शब्द है - सर्वज्ञता । सर्वज्ञता का अर्थ होता है स्वयं की सर्वसत्ता का ज्ञान । यद्यपि सर्वज्ञता और कैवल्य, दोनों एक ही सत्य के दो नाम हैं, पर कैवल्य सर्वज्ञता से भी ऊँची चीज है। ज्ञान चाहे स्वयं का ही क्यों न हो, ज्ञान की अनुभूति के लिए मन का संवेदनशील होना अनिवार्य है। इसलिए सर्वज्ञत्व अंतर-योग और परम योग हो सकता है, परंतु अयोग का विशुद्ध रूप तो कैवल्य की ही देन है । समाधि तो सर्वज्ञता भी है और कैवल्य भी । सर्वज्ञता की स्थिति सबीज समाधि है और कैवल्य निर्बीज समाधि है । सबीज समाधि में स्मृति से वियोग नहीं होता, बल्कि उसमें स्मृति का शुद्धीकरण होता है। उसमें मन की चंचलता समाप्त हो जाती है, परंतु जरूरत पड़ने पर मन का भी उपयोग किया जाता है । उसमें विचार मौन हो जाते हैं, किंतु आवश्यकता पड़ने पर होंठों से भी अभिव्यक्ति संभावित रहती है । सर्वज्ञता बनाम सबीज समाधि में शरीर, विचार और मन - तीनों ही बने तो रहते हैं, पर टूट जाता है सिर्फ तीनों का लगाव। उसमें बुद्धि का भी उपयोग होता है किंतु यह वह बुद्धि नहीं है, जिसके खाते सुमिरने / बिसर की बातें दर्ज हों । बुद्धि प्रज्ञा बन जाती है - संवितर्क, संप्रज्ञात, सानंद, सदाबहार । वहाँ होती है प्रज्ञा ऋतंभरा अर्थात् पूरी तरह विकसित / प्रकाशित 'ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा' । - 147 कैवल्य सबसे मुक्ति है, सारे संबंधों से छुटकारा है। कैवल्य यह समाधि है, जिसमें वृक्ष तो रहता ही नहीं है, बीज भी खो जाता है। इसलिए कैवल्य वास्तव में निर्बीज समाधि है | कैवल्य तो अध्यात्म- प्रसाद है । अस्तित्व का सबसे बड़ा सौभाग्य है। कैवल्य वह स्थिति है जिसके आगे और कोई गंतव्य नहीं बचता । जहाँ जाकर सारे चरण रुक जाते हैं, बुद्धि अपने हथियार डाल देती है, तर्क तेजहीन हो जाते हैं और मन की चिता बुझ जाती है। जहाँ सबका निरोध हो जाता है, सिर्फ स्वयं की मौलिकता बची रहती है, कृष्ण की भाषा में वह 'ईश्वर प्राप्ति' है। महावीर के शब्दों में वह 'मोक्ष' है । बुद्ध उसे 'निर्वाण' कहते हैं और पतंजलि उसे 'निर्बीज समाधि' । ये सारे संबोधन घुमाफिराकर उसी एक स्वरूप के उपनाम हैं, जिसे मैंने 'कैवल्य' कहा है हम दो शब्दों पर ध्यान दें - सयोगी केवली और अयोगी केवली । दोनों पारिभाषिक शब्द हैं। सयोगी केवली के मायने हैं कैवल्य की वह अवस्था जिसमें मन, वचन, काया का योग अभी अवशिष्ट है। अयोगी केवली कैवल्य की वह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy