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________________ 144 अन्तर के पट खोल में उस अविनाशी की छवि होगी। तुम पाप से तो बचोगे ही, तुम्हारा हर कृत्य पुण्यमय हो जाएगा। चंचल मन को स्थिर करने के लिए स्वयं को शोक-रहित करो और मन को प्रकाशमयी प्रवृत्तियों में लगाओ। वीतराग को तुम अपना आदर्श बनाओ। मन को स्वप्न और मूर्छा से बाहर निकालो। उसकी सदा स्मृति रखो जिसका जो इष्ट है। भगवान् की स्मृति को भूलो मत, फिर चाहे तुम कोई भी काम क्यों न कर रहे हो। हसैन ने अपने लिए कभी यह टिप्पणी की थी कि भजन करते समय तो मैं कुछ अच्छा होता हूँ, वरना मेरे जैसे सौ हुसैनों से तो वह कुत्ता अधिक अच्छा है जो मालिक की रोटी खाकर मालिक की हाजिरी बजाता है। __ जब भी ईश्वर की याद हो आए, अपनी साँसों में उसका स्वाद और सुवास ले लो। अपनी आँखों से जगत् को निहार कर उसकी रचना का आनंद ले लो। मीरा ने गिरधर को पाया था। तुम हरिहर को पा लो। सुमिरन सुरत लगाय के, मुख से कछुअन बोल। बाहर के पट देय कर, अंतर के पट खोल॥ भीतर में उसकी ‘सुरति' रहे, स्मृति रहे और हृदय में मीरा-भाव जन्मे, तभी गिरधर आत्मसात् हो सकते हैं। 000 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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