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________________ शांति का मार्ग : वर्तमान की अनुपश्यना वर्तमान में जीता है, उसके कदम स्वर्ग और नरक, दोनों के पार हैं। वह जैसा है, जो है, उसी का स्वागत-सत्कार करता है। वह सिर्फ अपने शरीर का ही वर्तमान में उपयोग नहीं करता, अपितु मन को भी वर्तमान पर केंद्रित कर लेता है । वर्तमान पर किया जाने वाला केंद्रीकरण अतीत और भविष्य के भटकाव में जीने से बेहतर है। नरक के भय से या स्वर्ग के लोभ से जीवन के कृत्य न हों, वे हों जीवन को स्वर्ग बनाने के लिए, मुक्त निर्भय चेतना का स्वामी बनने के लिए। सोच व्यर्थ है मृत अतीत का, व्यर्थ है आगे का चिंतन । जीवन तो बस वर्तमान है, श्रेष्ठ इसी का अभिनंदन ॥ लोग अतीत को ही सुमिरते रहते हैं, मन में अतीत का ही विश्लेषण करते रहते हैं, वे अपने घावों को कुरेद रहे हैं । वे मात्र यादों में खोए रहते हैं । उनके पास चिंतन नहीं, चिंता है। अच्छा अतीत भी आखिर हमें स्मृति का गम ही सौंपेगा माथाखोरी से बचने के लिए ही तो अतीत को अनादि कहा जाता है । सर्वज्ञ और सर्ववेत्ता भी अतीत के आदिम छोर को नहीं छू पाए। और एक हम लोग हैं जो सिर्फ अतीत के बारे में सोचते रहते हैं । अतीत को अगर जानेंगे भी, तो भी कितना ! जानकर भी अनजान ही रहेंगे। 1 13 ऐसा ही भविष्य है । भविष्य भी बीती बातों से कम नहीं है। भविष्य अक्सर अतीत का ही प्रतिबिंब होता है। भविष्य अतीत की पुनरावृत्ति है, अतीत की पोथी का पुनर्संस्करण है । फिर भी, भविष्य को कोई नहीं जान सकता । भविष्य के लिए सिर्फ कल्पनाएँ की जा सकती हैं, या अधरों के आश्वासन दिए जा सकते हैं। इस बात से कोई अनभिज्ञ नहीं है कि कल्पनाएँ महज मन की मक्खियाँ हैं और भिनभिनाते रहना मक्खियों का स्वभाव है। मन की कल्पना यदि एक ही लक्ष्य से जुड़ी रहती, तो शायद वह उस पक्ष की गहराई तक पहुँच जाता। मन तो हर कदम कदम पर कुआँ खोदना चाहता है। दस फुट तक खुदाई करने पर पानी न मिला, तो दूसरी जगह खोद - खाद शुरू कर दी । जो दस बीघा जमीन किसी समय खेत कहलाया करती थी, आज वह गड्ढों से भरी है। दस गड्ढों में बिखरी मेहनत का यदि एक ही स्थान पर निरन्तर प्रयोग किया जाए, तो लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। मनुष्य की स्थिति तो इस कदर है कि वह सौ को पाने के चक्कर में निन्यानवे को ठुकरा रहा है। हम जिएँ समय की उठापटक से ऊपर उठकर । वर्तमान का साधक ज्योति बुझने से पहले उसकी रोशनी में जीवन की आध्यात्मिक संपदा को ढूँढ़ निकालने में कामयाब हो जाता है। यदि हम मुक्त हो सकें, न केवल अतीत और भविष्य से, बल्कि वर्तमान से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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