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________________ 136 अन्तर के पट खोल मजीद भागा अपने गाँव की तरफ, क्योंकि सिपाही ने जो कुछ बताया था, वह उसी के घर की बात थी। वह घर पहुंचा, खुदाई की, वहाँ खजाना गड़ा मिला। सपने बड़े अजीब हैं। सपने हमेशा दूर के डूंगर दिखाते हैं, जब कि खजाने गड़े होते हैं पास, अपने ही पास। तुम्हारे पास भी खजाना गड़ा हो सकता है, सपने दूर के मत देखो। आँखें खोलो, सच्चाई तुम्हारे इर्द-गिर्द है, तुम्हारी जड़ों में है। स्वप्न-वृत्ति की अगली कड़ी है निद्रा। स्वप्न का संबंध तो अतीत और भविष्य से है जबकि नींद का संबंध वर्तमान से है। वर्तमान तो अतीत और भविष्य के दो किनारों को एक-दूसरे से मिलाने का सेतु है। जागरण वर्तमान के बनते-बिगड़ते रूप में ध्रुवता व शाश्वतता की खोज का तरीका है। समय की चक्की चलती रहती है। जागृत पुरुष वह है जो स्वयं को कील पर, केंद्र पर केंद्रित कर लेता है। महावीर ने इसे सम्यक् दर्शन कहा है। ऊर्जा का केंद्रीकरण और साक्षित्व का सर्वोदय ही सम्यक् दर्शन है। समय की धारा में अतीत और भविष्य की बजाय वर्तमान पर केंद्रीकरण करना बेहतर है, परंतु मनुष्य के लिए तो आत्म-श्रेयस्कर खुद-में-खुद का जगना ही है। सपने से नींद भली और नींद से जागृति। स्वप्न भटकाव है और नींद मूर्छा। स्वप्न तृष्णा है और नींद उसमें डुबकी। नींद शरीर की आवश्यकता है, परंतु यहाँ नींद का संबंध शरीर से नहीं, वरन् मन की मूर्छा से है। मूर्छा ही निद्रा है। निद्रा के ज्ञान का अर्थ है - मूर्छा का ज्ञान । मूर्छा को समझना ही मूर्छा से मुक्त होने का आधार है। जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अलग-अलग हैं। तीनों के अलगाव का बोध जीवन में ज्ञान की क्रांति है। अध्यात्म की शुरुआत जागति से होती है और उसकी पूर्णता सुषुप्ति में। हम जिसे जागना कहते हैं, वह तो ऊपर-ऊपर है। रात को सोए थे और सुबह आँखें खोलीं, नींद से उठना यह शारीरिक घटना हुई। इस जागरण से बाहर का जगत् तो दिखाई देगा, परंतु भीतर के जगत् का कहीं कोई दर्शन न होगा। संसार को देखना आँखों का जागरण है और आत्मा को पहचानना अंतरकी आँखों का जागरण है। अभी तक मनुष्य को यह ज्ञान कहाँ है कि मैं कौन हूँ ? उसे बाहर की तो सारी वस्तुएँ और हलचल दिखाई पड़ती है, पर यह कहाँ दिखाई देता है कि मैं कौन हूँ। सूई तो खोई पड़ी है घास के ढेर में। आत्मा का कहीं कोई अता-पता नहीं। हमने तो रात को सोना सुषुप्ति मान लिया और सुबह नींद से उठना जागृति। ___ जागृति में बाहर के जगत् का ही मूल्य बना रहता है। सुषुप्ति सोना है। सोने में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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