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________________ साधना का आदर्श : वीतराग 129 आज वे ही जनम-जनम के मीत हो चुके हैं अथवा जो कल तक लँगोटिया यार थे, आज वे ही फूटी आँख नहीं सुहाते। यह सब अंतर्द्वद्व है राग-द्वेष का।। यह भी मजे की बात है कि राग के विपरीत विराग है। विराग का अर्थ है राग से अलग होना। विराग राग से ही बना है। विद्वेष विराग की तरह नहीं है। विराग का अर्थ राग से अलग होना है, पर विद्वेष का अर्थ द्वेष से अलग होना नहीं है। विद्वेष का अर्थ है विशेष द्वेष, जबकि विराग का अर्थ विशेष राग नहीं है। यह शब्द-व्यवस्था भी गौर करने जैसी है। हम चलें राग से विराग की ओर और द्वेष से वीतद्वेष की ओर।। __ ध्यान रखें, विराग राग के विपरीत है। विराग राग से मुक्त होना नहीं है। वैरागी राग के विपरीत तो हो जाता है, किंतु बोधपूर्वक नहीं, द्वेषपूर्वक। चाहे किसी से राग करो या किसी से द्वेष, बंधन की बेड़ियाँ तो दोनों में ही होंगी। चित्तवृत्तियों से ऊपर उठने के लिए न तो राग से द्वेष हो और न ही द्वेष में राग हो। वीतराग न तो राग से द्वेष करता है और न द्वेष में राग । वीतराग तो जीवन की पराकाष्ठा है। विराग, राग और वीतराग दोनों के बीच का पेंडुलम है। वीतराग होने का अर्थ है राग से ऊपर उठना। राग के विपरीत होना अलग बात है, किंतु राग से ऊपर उठ जाना द्वेष से भी मुक्त हो जाना है। इसलिए न तो किसी से चोंटो और न ही किसी से वैमनस्य रखो। ऊपर उठना ही शिखर-यात्रा है। पत्तियाँ रहें तो रहें, काँटे रहें तो रहें, उनसे झगड़ा कैसा? फूल का काम केवल खुद को खिलाना है। काँटों की ही खबर रखोगे तो काँटो से बिंध जाओगे। फूल खिलता है निजता से, निजत्व के बोध से। ऊपर उठो और खिलो। ध्यान केंद्रित हो वीतराग पर। न राग, न द्वेष, यह है वीतराग। वीतराग का अर्थ है राग-द्वेष पर विजय। जीवन के दो प्रबल शत्रु हैं - राग और द्वेष। राग दो कारणों से बढ़ता है - एक है मूर्छा और दूसरा है लोभ । ऐसे ही द्वेष भी दो कारणों से पनपता है - एक है क्रोध और दूसरा है घमंड। राग और द्वेष अपने साथ संसार और दु:ख की परंपरा को जोड़े रखते हैं। पशु, मनुष्य और देवतासभी राग में अनुरक्त हैं। हिरण, स्त्री, सर्प और राजा - इन चारों में राग की मात्रा ज्यादा होती है। एक बार एक रागांध बादशाह ने अपनी बेगम से कहा - 'प्यारी, मैं तुम्हारे लिए प्राण देने को तैयार हूँ।' बेगम ने कहा - 'आप मुझ पर नहीं, मेरे नाज पर, अंदाज पर, चाल पर, जुबान-वाणी पर मरते हैं।' भला, किसी की जुल्फों का हवा में लहराना भी व्यक्ति को राग-विह्वल कर देता है! मुझ पर तुम मरते नहीं, मर रहे इन चार पर। नाज़ पर, अंदाज पर, रफ्तार पर, गुफ्तार पर। तुम न राग में मूर्च्छित बनो और न द्वेष में अंधे। कान में पड़ने वाले शब्दों को न सुनना तो संभव नहीं है, पर तुम उनके प्रति चित्त में राग-द्वेष मत आने दो। आँखों For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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