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________________ भी भगवान को निहारता है, व्यवसाय को भी भगवान की भक्ति मानता है। ऐसे व्यक्ति का जीवन चौबीसों घण्टे धर्म - ध्यान में बीतता है । उसका जीना वास्तव में जीवन की तीर्थ-यात्रा कहलायेगी । संत रैदास जो मोचीगिरी का काम कर लिया करते, जूतों की सिलाई, पालिश का, और हर धागे की पिरोई में 'प्रभुजी ! तुम चन्दन हम पानी' जैसे गीतों का संगान होता । संत गोरा अवश्य ही कुंभकार था । घड़ों को बनाने का काम करता, लेकिन घड़े बनाते-बनाते उसने स्वयं को बना लिया। अपनी आत्मा को प्रगट कर लिया था । 1 कर्मयोग न तो ध्यान - विमुख प्रवृत्ति है और न ही ध्यान-योग कर्मविमुख प्रवृत्ति है । हमें ध्यान और कर्म दोनों को परस्पर सम्बद्ध कर लेना चाहिये। हमारे जीवन के लिए आखिर दोनों आवश्यक हैं। आप सुबह योगासन करते हैं, अच्छी बात है । व्यायाम अवश्य करना चाहिये, पर अगर आपको लगता हो कि आपके घर में सामान बिखरा पड़ा है तो आसन करने से पहले उन बिखरे हुए सामानों को व्यवस्थित करना ज्यादा आवश्यक है। यह भी एक प्रकार का व्यायाम ही है । इससे दो फायदे व्यायाम का व्यायाम हो गया और घर व्यवस्थित हो गया । हम ध्यानयोग करते हों तो इसका यह अर्थ नहीं हुआ कि हम समाज - विमुख हो गये, या हमने मेहनत करनी छोड़ दी । नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिये । हमें समाज पर बोझ नहीं होना चाहिये । घर वालों को ताना देने का यह अवसर नहीं देना चाहिये कि आप आसन लगाकर बैठ गये और घर में इतना काम पड़ा हुआ है । जीवन को हमें एक व्यवस्था देनी चाहिये । ध्यान उसी व्यवस्था का एक अंग है । संत विनोबा भावे ने भूदान यज्ञ चलाया था । देशहित में उनके श्रम और सेवाओं को सदा याद किया जाता रहेगा । संसार को आज ऐसे ही संतों की आवश्यकता है जो अपने आध्यात्मिक मूल्यों को समाज के सुधार और उद्धार में उपयोग कर सकें। आप जो भी कुछ करें अतंस् चेतना में सदा यह सजगता रहनी चाहिये कि आप अपने इस अमुक कर्म को करते हुए ध्यान ही कर रहे हैं । ९६ / ध्यान का विज्ञान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003865
Book TitleDhyan ka Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2011
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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